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________________ प्रस्तावना [ १५ निर्देश करके आगे उनके इस निवासस्थानकी ऊंचाईके प्रमाणके साथ आयुका भी प्रमाण बतलाया गया है। तत्पश्चात् वैमानिक देवोंके कल्पज और कल्पातीत इन दो भेदोंका निर्देश करके बारह कल्पभेदोंका उल्लेख इस प्रकारसे किया गया है ---- १ सौधर्म २ ऐशान ३ सनत्कुमार ४ माहेन्द्र ५ ब्रह्मलोक ६ लान्तव ७ महाशुक्र ८ सहस्रार ९ आनत १० प्राणत ११ आरण और १२ अच्युत । इसकी संगति यहां त्रिलोकसार की ‘सोहम्मीसाणसणक्कुमार-' इत्यादि तीन (४५२-५४) गाथाओंको उद्धृत करके इन्द्रोंकी अपेक्षासे बैठायी गई है। इन कल्पोंके ऊपर क्रमसे तीन अधोग्रैवेयक, तीन मध्य ग्रैवेयक, तीन उपरिम अवेयक, नौ अनुदिश, पांच अनुत्तर विमान और अन्तमें ईषत्प्राग्भार पृथिवी का अवस्थान निर्दिष्ट किया गया है। समस्त विमान चौरासी लाख (८४०००००) हैं। ऊर्ध्वलोकमें जो ऋतु आदि तिरेसठ (६३) पटल हैं उनके ठीक बीच में इन्हीं नामोवाले तिरेसठ इन्द्रक विमान हैं । इनमें सौधर्म-ऐशानमें इकतीस, सनत्कुमार-माहेन्द्रमें सात, ब्रह्ममें चार, लान्तवमें दो, महाशुक्रमें एक, सहस्रारमें एक , आनतादि चार कल्पोमें छह, तीन अधोग्रेवेयकोंमें तीन, मध्यम तीनमें तीन, उपरिम तीनमें तीन, नौ अनुदिशमें एक और अनुत्तर विमानोंमें एक ही पटल है। जिस प्रकार तिलोयपण्णत्तीमें सोलह कल्पविषयक मान्यताभेदका उल्लेख करके उन उन कल्पोमें विमानसंख्याके कथनकी प्रतिज्ञा करते हुए आगे तदनुसार उनकी संख्याका निरूपण किया गया है ठीक इसी प्रकारसे यहां (१०-३६) भी उक्त मान्यताका निर्देश करके सोलह कल्पोंके आश्रयसे विमानसंख्याका कथन किया गया है। इस प्रसंगमें आगे जैसे ति. प. में आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पोंमें वह विमानसंख्या एक मतसे ४४०+२६०=७०० तथा दूसरे मतसे ४००-५-३००-७०० निर्दिष्ट की गई है ठीक उसी प्रकारसे उन दोनों ही मान्यताओंके आश्रयसे यहां (१०, ४२-४३) भी वह संख्या उसी प्रकारसे निर्दिष्ट की गई है। इसके आगे ग्रैवेयकादि कल्पातीत विमानोंमें भी उक्त विमानसंख्याका निरूपण करते हुए संख्यात व असंख्यात योजन विस्तृत विमानों, समस्त श्रेणीबद्ध विमानों तथा पृथक् पृथक् कल्पादिके आश्रित श्रेणीबद्ध विमानोंकी संख्या निर्दिष्ट की गई है। प्रथम ऋतु इन्द्रकका विस्तार मनुष्यलोक प्रमाण ४५ लाख यो. है। इसके आगे द्वितीयादि इन्द्रकोंके विस्तारमें उत्तरोत्तर ७०९६७३३ यो. की हानि होती गई है। अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रका विस्तार १ लाख यो. है। यहां इन विमानों में कितने श्रेणीबद्ध विमान किस १. लो. वि १०, २५-३५; ति. प. ८, १३७-४७; त्रिलोकसार (४६२) में इन कल्पाश्रित इन्द्रकोंकी संख्या मात्रका निर्देश किया गया है, कल्पनामोंका निर्देश कर उनके साथ संगति नहीं बैठायी गई है। परन्तु टीकाकार श्री माधवचन्द्र विद्य देवने १६ कल्पोंके आश्रित उनकी संगति बैठा दी है। २. जे सोलस कप्पाइं केई इच्छंति ताण उपएसे । तस्सि तस्सि वोच्छं परिमाणाणि विमाणाणं । ति.प.८-१७८. ३. आणदपाणदकप्पे पंचसया सट्ठिविरहिदा होति । आरणअच्च दकप्पे दुसयाणि सट्ठि जुत्ताणि ॥ अहवा आणदजुगले चत्तारि सयाणि वरविमाणाणि । आरणअच्चुदकप्पे सयाणि तिणि च्चिय हुवंति ।। ति. प. ८, १८४-८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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