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________________ -६.८०] षष्ठो विभागः [ ११३ अष्टात्रिंशत्सहस्राणि नवतिश्च सपञ्चका । कालोदार्णवसूर्याणां देशोना मतमन्तरम् ॥ ७३ ।३८०९५। ५३ । धातक्याह्वजगत्याश्च अर्धसूर्यान्तरान्तरे । मण्डलेऽभ्यन्तरे ज्ञेयो वर्तमानो दिवाकरः ॥ ७४ ।१९०४७ । २८,। द्वाविंशतिसहस्राणि द्वाविंशति-शतद्वयम् । पुष्करार्धार्धसूर्याणां देशोनं मतमन्तरम् ॥ ७५ ।२२२२२ ऋणं ३१९ । कालोदकजगत्याश्च अर्धसूर्यान्तरान्तरे । मण्डलेऽभ्यन्तरे ज्ञेयो वर्तमानो दिवाकरः ॥७६ ।१११११ ऋणं । ५५५। । भादौ गजगतिभानोर्मध्ये चाश्वगतिर्भवेत् । अन्ते सिंहगतिः प्रोक्ता मण्डले तत्त्वदृष्टिभिः ॥७७ इष्टस्य परिधेर्माने' मुहूर्तः षष्टिभिर्हते' । यल्लब्धं तच्च मान्वोश्च मुहूर्तगमनं भवेत् ॥ ७८ द्विपञ्चाशच्छतं चैकं पञ्चाशत्प्रथमे पथि । नव द्विकं च षष्ठयंशाः पूष्णोमाहूतिको गतिः ॥७९ ।५२५१। । दिशच्छतषष्टमंशाः सहस्रं पञ्चसप्ततिः । मुहूर्तगमने वृद्धिः परिधि प्रति सूर्ययोः ॥ ८० अभ्यन्तर वलयमें सूर्य वर्तमान है, ऐसा समझना चाहिये ।। ७२ ॥ कालोद समुद्र में संचार करनेवाले सूर्योंके मध्यमें कुछ कम अड़तीस हजार पंचानबै योजन मात्र अन्तर माना गया है -- { ८०००००-(१६४३२)}:४२ = ३८०९४१५६क यो. ॥७३॥ धातकीखण्ड नामक द्वीपकी जगतीसे अर्ध सूर्यान्तर (३८०९४५४६१:२) में अवस्थित अभ्यन्तर वलयमें वर्तमान सूर्य समझना चाहिये ।। ७४ । पुष्करार्ध द्वीपमें संचार करनेवाले आधे सूर्योके मध्यमें कुछ कम बाईस हजार दो सौ बाईस योजन मात्र अन्तर माना गया है- {८००००० -(१६४७२)} : १=२२२२१२ १२ यो. ।। ७५ ॥ कालोदक समुद्रकी जगतीसे अर्ध सूर्यान्तर (२२२२१२३२ २)में अवस्थित अभ्यन्तर वलयमें वर्तमान सूर्य समझना चाहिये ॥ ७६ ॥ ___ तत्त्वदर्शियोंके द्वारा सूर्यकी आदिम मण्डल में गजगति, मध्य में अश्वगति और अन्तमें सिंहगति कही गई है ।। ७७ ।। अभीष्ट परिधिका जो प्रमाण हो उसको साठ मुहूर्तोंसे भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना सूर्यकी एक मुहूर्त प्रमाण गतिका प्रमाण होता है ।। ७८ ॥ । उदाहरण - प्रथम परिधि ३१५०८९ यो.; ३१५०८९६०== ५२५१२४यो. । यह प्रथम परिधिमें स्थित सूर्य की एक मुहूर्त परिमित गतिका प्रमाण है। प्रथम पथमें सूर्यकी इस मुहूर्त परिमित गतिका प्रमाण बावन सौ इक्यावन योजन और एक योजनके साठ भागोंमेंसे नौ व दो अर्थात् उनतीस भाग (५२५१६४) मात्र है ॥७९॥ आगे प्रत्येक परिधिमें संचार करते हुए दोनों सूर्योकी इस मुहूर्त परिमित गतिमें उत्तरोत्तर छत्तीस सौ साठ भागोंमेंसे एक हजार पचत्तर भागों (१९५५) की वृद्धि होती गई है।८०॥ १आप मनिं । २५ हते । ३ ब षष्ठचंताः । को. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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