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________________ ९८] लोकविभागः [५.१४३पूर्वकोटिः प्रकृष्टायुः प्रत्यहं चापि भोजनम् । धनुष्पञ्चशतोच्छायश्चतुर्थ्यादौ नृणां भवेत् ॥१४३ ।७०५६, । पञ्चवर्णशरीराश्च धर्माधर्मरता: प्रजा । कुपाखण्डा' न विद्यन्ते तस्मिन् काले समागते ॥ १४४ पञ्चस्वपि विदेहेषु चतुर्थ्यादियुगं स्थितम् । गुणेषु हीयमानेषु पञ्चमी चोपतिष्ठते ॥ १४५ तत्रादौ सप्तहस्तोच्चा विंशत्यब्दशतायुषः । रुक्षवर्णशरीराश्च प्रायाहाराश्च मानवाः॥ १४६ स्तब्धा लुब्धाः कृतघ्नाश्च पापिष्ठा: प्रायशः शठा: । रुक्षाः क्रूरा जडा मूर्खा अमर्यादा अधार्मिकाः॥ हिंसाचौर्यानृतोद्युक्ताः कातराः परदूषकाः । पिशुनाः क्रोधना धूर्ताः पञ्चमे प्रायशो नराः ॥ १४८ डामरक्षामरोगार्ता बाधाभग्नाश्च मानवाः । न त्रातारं न भर्तारं लभन्ते कालकर्षिताः५ ॥ १४९ ईतिचोरठकाद्याढ्या त्वनावृष्टिविरूक्षिता । व्याधापहृतभार्या च तथा भूमिर्न शोभते ॥ १५० व्यालकोटमृगव्याधैरन्यायायुक्तिकेश्वरः । कुहकैश्च वृथा लोको यथेष्टमभिपीड्यते ॥ १५१ होते हैं; सुषमसुषमा आदि पूर्वके तीन कालों में वे नहीं उत्पन्न होते ॥१४२॥ चतुर्थ कालके प्रारम्भमें मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि (७०५६शून्य १७) प्रमाण, प्रतिदिन आहारग्रहण और शरीरकी ऊंचाई पांच सौ धनुष प्रमाण होती है ॥१४३॥ उस काल (चतुर्थ) के शरीरोंका वर्ण (द्रव्य लेश्या) पांच प्रकारका होता है। तथा प्रजाजन धर्म एवं अधर्म दोनों में उपस्थित होनेपर ही निरत होते हैं, अर्थात् उनमें बहुत-से धर्मात्मा भी होते हैं और बहुत-से पापिष्ठ भी होते हैं। उस समय निकृष्ट पाखण्डी नहीं रहते हैं ॥१४४॥ पांचों ही विदेहोंमें चतुर्थ कालके प्रारम्भ जैसा युग स्थित रहता है । [पांच भरत एवं ऐरावत क्षेत्रोंमें ] क्रमशः बुद्धि व आयु आदि गुणोंके हीयमान होनेपर चतुर्थ कालके बाद पंचम काल उपस्थित होता है ।।१४५॥ उसके प्रारम्भ में शरीरकी ऊंचाई सात हाथ और आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण होती है। इस कालमें उत्पन्न हुए मनुष्य रूखे वर्णयुक्त शरीरसे संयुक्त होते हुए प्रचुरतासे भोजन करनेवाले होते हैं ॥ १४६ ।। पंचम कालमें उत्पन्न हुए मनुष्य प्रायः करके कुण्ठित, लोभी, कृतघ्न, पापिष्ठ, प्रायः करके दुष्ट, रूखे, क्रूर, जड, मूर्ख, मर्यादासे रहित, अधार्मिक, हिंसा, चोरी एवं असत्यमें उद्युक्त (प्रवर्तमान), कातर, परनिन्दक, पिशुन, क्रोधी और धूर्त होते हैं ॥१४७-१४८॥ इस कालके मनुष्य विप्लव (उपद्रव) को सहनेवाले, कृश, रोगोंसे पीडित और बाधाओंसे भग्न होते हैं। कालके प्रभावसे वे उस समय किसी रक्षक और भरण-पोषण करनेवालेको नहीं पाते हैं ॥१४९॥ इस कालमें ईति, चोर एवं ठग आदिसे सहित तथा वर्षासे रहित रूखी पृथिवी शोभायमान नहीं होती है । उस समय इस पृथिवीके ऊपर व्याधोंके द्वारा स्त्रियोंका अपहरण किया जाता है ॥ १५० ॥ इस कालमें व्याल (सर्प) कीड़े मुगादि पशु, व्याध (शिकारी), अन्याय व अयोग्य आचरण करनेवाले तथा कपटी लोगोंके द्वारा प्रजाजनोंको मनमाना कष्ट पहुंचाया जाता है ॥ १५१ ।। १ व कुपाषंडा। २ब हिय । ३ प हस्तोच्च। ४ प रक्ष°। ५ व कर्शिताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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