SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकविभागः दुतडादो सत्तसयं दुकोस अहियं च होइ सिहरादो । णयराणि हु गयणतले जोयणदसगुणसहस्साणि' ॥ ४ ॥ ७०० को २ । १०००० । द्वीपमेनं द्वितीयं चाश्रित्य नगराणि तु । मध्येऽपि च समुद्रस्य समुद्र साधु रक्षताम् || २१ द्वौ द्वौ च पर्वतौ प्रोक्तौ पातालानां च पार्श्वयोः । अन्तराणि च तेषां तु शृणु नामानि चैव तु ।। २२ एकं शतसहस्रं च सहस्राणि च षोडश । योजनस्य यथातत्त्वं पर्वतान्तरमुच्यते ॥ २३ द्विचत्वारिशतं गत्वा सहस्राणां तटात्परम् । पुरस्तात्सागरे तुल्यौ वडवामुखतो गिरी ।। २४ उत्तर: कौस्तुभो नाम्ना कौस्तुभासस्तु दक्षिणः । सहस्रमुद्गतौ शुभ्रावर्धकुम्भसमाकृती || २५ राजतौ वज्रमूलौ च नानारत्नमयाग्रकौ । तन्नामानौ सुरावत्र विजयस्येव वर्णना ।। २६ उदकरचोदवासश्च दक्षिणस्यां च पर्वतौ । शिवश्च शिवदेवश्च तत्र च व्यन्तरामरौ ।। २७ शंखोऽथ च महाशंखः शंखवर्णे च पश्चिमौ । उदकश्चोदवासश्च नामतोऽत्र सुरावपि ।। २८ ५२ ] विमान स्थित हैं || ३ || ये नगर दोनों तटोंसे सात सौ (७०० ) योजन जाकर तथा शिखरसे दो को अधिक सात सौ ( ७००३ ) योजन जाकर आकाशतलमें स्थित हैं। इनका विस्तार दस हजार ( १०००० ) योजन प्रमाण है । ४ ॥ वे नगर इस जंबूद्वीपका तथा द्वितीय ( धातकीखण्ड ) द्वीपका भी आश्रय करके स्थित हैं । समुद्रके मध्य में भी वे नगर अवस्थित हैं । इन में रहनेवाले नागकुमार समुद्रकी भली भांति रक्षा करते हैं ।। २१ ।। [ २.२१ पातालोंके दोनों पार्श्वभागों में जो दो दो पर्वत कहे गये हैं उनके अन्तरों और नामोंको सुनिये ॥ २२ ॥ इन पर्वतोंका अन्तर आगमानुसार एक लाख सोलह हजार ( ११६०००) योजन प्रमाण कहा जाता है || २३ || तटसे व्यालीन हजार (४२०००) योजन आगे समुद्र में जाकर वडवामुख पातालके उत्तर भाग में कौस्तुभ और उसके दक्षिण भाग में कौस्तुभाग नामक दो समान विस्तारवाले पर्वत स्थित हैं। ये दोनों रजतमय धवल पर्वत एक हजार (१००० ) योजन ऊंचे, अर्ध घटके समान आकारवाले, वज्रमय मूलभागसे संयुक्त तथा नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं । इनके ऊपर जो उन्हींके समान नामवाले ( कौस्तुभ - कौस्तुभास) दो देव रहते हैं उनका वर्णन विजय देवके समान है ।। २४-२६ ।। दक्षिण में भी उदक और उदवास नामके दो पर्वत स्थित हैं । उनके ऊपर शिव और शिवदेव नामके दो व्यन्तर देव रहते हैं ||२७|| शंख के समान वर्णवाले शंख और महाशंख नामके दो पर्वत पश्चिम की ओर स्थित हैं । इनके ऊपर भी उदक और उदवास नामके दो देव रहते हैं ॥ २८ ॥ १ मुद्रितत्रिलोकसारे तु ' गुणसहस्सवासाणि ' पाठोऽस्ति । २ प विजयास्येव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy