SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) ( ८३ प्रवचनसार ग्रंथ की गाथा ८० की टीका एवं भावार्थ अवश्य पढ़ा जाना चाहिए एवं हृदयंगम करना चाहिए। गाथा ८० की टीका का भावार्थ निम्नप्रकार है : “ अरहंत भगवान और अपना आत्मा निश्चय से समान है। अरहंत भगवान मोह-राग-द्वेष रहित होने से उनका स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट है, इसलिये यदि जीवद्रव्य-गुण- पर्यायरूप से उस अरहंत भगवान के स्वरूप को मन द्वारा प्रथम समझ ले तो यह जो आत्मा, आत्मा का एकरूप कथंचित सदृश त्रैकालिक प्रवाह है सो द्रव्य है, उसका जो एकरूप रहने वाला चैतन्यरूप विशेषण है सो गुण है और उस प्रवाह में जो क्षणवर्ती व्यतिरेक है सो पर्यायें हैं" इसप्रकार अपना आत्मा भी द्रव्य-गुण- पर्याय रूप से मन के द्वारा ज्ञान में आता है। इसप्रकार त्रैकालिक निज आत्मा को मन के द्वारा ज्ञान में लेकर जैसे मोतियों को और सफेदी को हार में ही अन्तर्गत करके मात्र हार ही जाना जाता है, उसीप्रकार आत्मपर्यायों को और चैतन्य - गुण को आत्मा में ही अन्तर्गर्भित करके केवल आत्मा को जानने पर परिणामी परिणाम परिणति के भेद का विकल्प नष्ट होता जाता है । इसलिये जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है, और उससे दर्शनमोह निराश्रय होता हुआ नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा है, तो मैंने मोह को सेना पर विजय प्राप्त करने का उपाय प्राप्त कर लिया है - ऐसा कहा है ॥ ८० ॥ उपरोक्त दशा प्राप्त आत्मा को उपरोक्त शुद्धोपोग के काल में संपूर्ण आत्मा का स्वभाविक आनंद वेदन में आ जाता है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा संपूर्ण आत्मा स्वसंवेदन रूप से ज्ञात हो गया तथा अनंतानुबंधी का नाश हो जाने से आत्मा के सभी गुण आंशिक रूप से अभेद होकर, आत्मा का आत्मा में आचरण प्रारंभ हो जाता है। अतः उस ही समय एक साथ सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चरित्र की एकता हो जाने से मोक्षमार्ग प्रारम्भ हो जाता है अर्थात् निश्चय रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग प्रगट हो जाता है। इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy