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________________ २४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ अत: जबकि विश्व का अस्तित्व है तो, छह द्रव्यों का अस्तित्व भी है, और जब उनका अस्तित्व है तो उनको जानने वाले ज्ञान का भी अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसप्रकार जानने वाले के बिना सभी का अस्तित्व कौन सिद्ध करेगा। इसप्रकार आत्मा का ज्ञान स्व-पर प्रकाशक ही है, यह भी निःशंक होकर स्वीकार करने योग्य है। उपरोक्त प्रकार से ज्ञान के स्व प्रकाशक एवं पर प्रकाशक स्वभाव को समझकर, अपना वीतरागता रूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए आत्मार्थी निम्नप्रकार पुरुषार्थ करता है : इस स्वाभाविक प्रक्रिया की यथार्थ श्रद्धा उत्पन्न हो जाने से, भेद ज्ञान के लिए अत्यन्त सरल मार्ग प्राप्त हो जाता है । यथा, आत्मा से भिन्न समस्त द्रव्यों के प्रदेश भिन्न होने से, आत्मा की उनके प्रति तो कर्तृत्वबुद्धि ही विसर्जित हो गई तथा आत्मा के विकारी भावों को, भावभेद की मुख्यता से समझकर, उनमें से अपनत्व का अभाव हो जाने से उनके प्रति उपेक्षा बुद्धि उत्पन्न हो गई। साथ ही पर के साथ ज्ञाता-ज्ञेय संबंध मानकर मात्र जानने की अपेक्षा, परमुखापेक्षी वृत्ति, स्वमुखापेक्षी हो जाती है। क्योंकि जानने की प्रक्रिया परसन्मुखता पूर्वक होती ही नहीं है, पर संबंधी ज्ञेयाकार भी अपनी ही ज्ञान पर्याय में विद्यमान रहते हैं, पर को भी स्व-सन्मुखता पूर्वक ही जानता है। इसलिए पर ज्ञेयों के साथ तो, जानने के लिए भी मेरा संबंध नहीं रहता। अत: मैं तो निरपेक्ष अकर्ताज्ञायक स्वभावी आत्मा ही हूँ। पर को जानने की क्रिया करने वाला भी मैं नहीं हूँ। इसप्रकार ज्ञान, निरपेक्षतापूर्वक वीतरागता को प्राप्त होकर, आत्मसन्मुखतापूर्वक आत्मानुभव प्राप्त कर लेता है। इसप्रकार प्रवचनसार के आधार से आत्मा के ज्ञानस्वभाव पर विस्तार से चर्चा भाग-४ में की गई है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञान स्वभावी आत्मा जब उपरोक्त् प्रकार से स्वाभाविक परिणमन करता है, तो स्व में एकत्वपूर्वक लीन होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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