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________________ १८६) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ एक क्षण भी निरर्थक खोना सहन नहीं होता, उसको तो सहज रूप से ऐसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं कि :काम एक आत्मार्थ का, अन्य नहीं मन रोग। तथा कषाय की उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष । भवे खेद प्राणीदया, वहाँ आत्मार्थ निवास ॥ - श्री मद्राजचंद्र ( यहाँ प्राणी का अर्थ स्वआत्मा तथा परआत्मा दोनों समझना चाहिए) उपरोक्त तीव्र रुचि वाले जीव ने जो मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग समझा है तथा उस पर खूब चिन्तन, मनन, चर्चा वार्ता द्वारा तथा आगम में बतायी हुई पद्धति, शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ के माध्यम से समझकर परीक्षा करके भावार्थ समझा है । वह आत्मार्थी सर्वप्रथम उक्त मार्ग की सत्यता के प्रति, पूर्ण विश्वस्त होकर नि:शंक हो जाता है। उक्त प्रकार की परीक्षापूर्वक समझे गये मार्ग पर जब अटूट श्रद्धा हो जाती है। तब उस आत्मार्थी की रुचि आत्मा को प्राप्त करने के लिए और भी उग्र हो जाती है। जैसे आबालगोपाल सभी को अनुभव है कि जब किसी भी व्यक्ति को अपने कार्य में थोड़ी भी सफलता प्राप्त हो जाती है, तो उसको उस कार्य को शीघ्र से शीघ्र सम्पन्न करने की रुचि और भी तीव्र हो जाती है। उसीप्रकार पूर्व में मार्ग समझने के लिये आत्मार्थी की बुद्धि अनेक ग्रंथों के अध्ययन आदि में भटकती फिरती थी और भटकने पर भी यह समझ में नहीं आता था कि किस मार्ग के अपनाने से आत्मलाभ होगा। अब जब यह भटकन समाप्त होकर यथार्थ मार्ग प्राप्त हो जाता है तो उसको अपार हर्ष होता है और स्वाभाविक रूप से उसकी आत्मलाभ करने की रुचि का वेग और भी उग्र हो जाता है । फलत: उसकी पूर्व रुचि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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