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________________ १८४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ भाव ही ज्ञाता है। इसप्रकार ज्ञानमात्र भाव ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता- इन तीनों भावों से युक्त सामान्य विशेषस्वरूप वस्तु है । “ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ"। इसप्रकार अनुभव करने वाला पुरुष अनुभव करता है।" यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति __यथार्थ समझ से रुचि परिवर्तन अवश्यम्भावी प्रश्न :- उपरोक्त प्रकार से समस्त प्रकरण समझ लेने से यह बात बराबर समझ में आती है तथा विश्वास भी उत्पन्न हो जाता है कि ज्ञाता-ज्ञान ज्ञेय की अभेद परिणति हुए बिना आत्मा का अनुभव सम्भव नहीं है। लेकिन ऐसा निर्णय कर लेने पर भी आत्मानुभूति तो नहीं होती; उसका कारण क्या? समाधान :- उपरोक्त प्रकार के निर्णय को यथार्थ निर्णय तभी कहा जा सकता है, जबकि उक्त निर्णय के साथ-साथ रुचि का परिवर्तन भी हो। यथार्थ रुचि के बिना आत्मा की परिणति, जो कि अभी तक परमुखापेक्षी चली आ रही है, उसका आत्माभिमुख होने का प्रारम्भ ही नहीं होता, परिणति आत्माभिमुख हुए बिना उपयोग भी आत्मसन्मुख नहीं होगा । ऐसी स्थिति में आत्मानुभव होना सम्भव ही नहीं हो सकता अत: यथार्थ रुचि उत्पन्न करने के लिए उपरोक्त निर्णय करना तो आवश्यक है ही। लेकिन अगर उपरोक्त कथन समझ लेने पर भी सिद्ध भगवान बनने की रुचि ही जाग्रत नहीं हुई तो उस समझ का लाभ ही क्या हुआ? मोक्षमार्ग को समझना तो सिद्ध दशा प्राप्त करने के लिये ही होता है। उपरोक्त वस्तु स्वरूप समझकर तथा सिद्ध दशा प्राप्त करने का मार्ग समझ में आ जाने पर तो, अंदर हृदय में उस मार्ग का अनुसरण करके उस रूप बन जाने की तीव्र उत्कंठा अवश्य उत्पन्न हो जानी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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