SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ के समक्ष स्व एवं पर दोनों रहेंगे ज्ञप्ति परिवर्तन अवश्यंभावी रहने से राग का उत्पादन भी अवश्य हुए बिना रह ही नहीं सकता । अत: अनेकान्त के यथार्थ ज्ञान द्वारा मात्र एक स्व ही रह जावे, तब ही वीतरागता प्रगट हो सकती है । इसीलिये श्रीमद् ने कहा है कि अनेकान्त मार्ग, सम्यक् एकान्त ऐसे निजपद की प्राप्ति कराने के लिये उपयोगी है। इसप्रकार सम्यक् एकान्त के द्वारा ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय रूपी भेदों का ही अभाव होकर मात्र एक अभेद स्व ऐसा त्रिकाली ज्ञायक भाव ही अनुभूति में " अहम् " के रूप में रह जाता है। इसी समय आत्मा को निर्विकल्प आत्मानुभूति रूप निजानन्द की प्राप्ति हो जाती है, सम्यक् एकान्त व सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है। अनादि संसार का विच्छेद हो जाता है, समयसार के परिशिष्ट के कलश २६५ के अर्थ में कहा है : “ऐसी ( अनेकान्तात्मक ) वस्तु तत्व की व्यवस्थिति को अनेकान्त संगत ( अनेकान्त के साथ सुसंगत, अनेकान्त के साथ मेल वाली ) दृष्टि के द्वारा स्वयमेव देखते हुए स्याद्वाद की अत्यन्त शुद्धि को जानकर, जिननीति का ( जिनेश्वरदेव के मार्ग का) उल्लंघन न करते हुए सत्पुरुष ज्ञान स्वरूप होते हैं ।” उपरोक्त कथन का अभिप्राय यह है कि अनेकान्त दृष्टि से सम्यक् एकान्त को प्राप्तकर ज्ञाता - ज्ञान - ज्ञेय का भेद निरस्त कर अभेद आत्मा के आश्रय से स्वानुभव प्राप्त करते हैं। इस ही विषय को दृढ़ करते हुए उपरोक्त कलश के अंत में आचार्य कहते हैं : “ अब इसके ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के उपाय - उपेय साधक - साध्य विचारा जाता है अर्थात् आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है फिर भी उसमें उपायता और उपेयत्व दोनों कैसे घटित होते हैं सो इसका विचार किया जाता है— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy