SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ में भी आता है। ज्ञान और आत्मा अभेद होने से, आत्मा को भी स्व-पर प्रकाशक स्वभावी कहा गया है। नियमसार गाथा १५९ की टीका के अन्त में कहा है कि -"सहजज्ञान स्वात्मा को तो स्वाश्रित निश्चयनय से जानता ही है और इसप्रकार स्वात्मा को जानने पर उसके समस्तगुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं। अब सहजज्ञान ने जो यह जाना उसमें भेद-अपेक्षा से देखें तो सहजज्ञान के लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरक्त अन्य सब-दर्शन, सुख आदि-पर हैं,इसलिये इस अपेक्षा के लिए सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्ष से भी ज्ञान स्व को तथा पर को जानता है।" अब प्रश्न होता है कि ज्ञान का विषय स्व-पर में विभाजित होने से, ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता है अथवा ज्ञान की सामर्थ्य ही स्व-पर प्रकाशक होने के कारण, स्व-पर को जानता है? समाधान :- अगर दोनों में ही अपने-अपने कारण से स्व-पर प्रकाशकता नहीं हो तो दोनों ही द्रव्य पराधीन हो जावेंगे, निमित्त एवं उपादान दोनों स्वतंत्र परिणमते हुए, दोनों ही अपनी-अपनी शक्ति सामर्थ्य द्वारा परिणमते हैं। जीव तो स्व-पर प्रकाशका स्वभावरूप एवं ज्ञेय भी प्रमेयत्व स्वभावरूप परिणमते हैं। दोनों में मात्र समकाल प्रत्यासक्ति है। इसलिये दोनों वस्तु के स्वभावों को विस्तार से समझने से ही, ज्ञान की स्व-पर प्रकाशकता समझ में आ सकती है। इस विषय को समझने के लिये सर्वप्रथम विश्व की समस्त वस्तुओं के सामान्य स्वभाव को समझना चाहिये, जिसमें ज्ञान का धारक आत्मा भी सम्मिलित है। वस्तुमात्र का सामान्य स्वभाव, “अनेकांत" जिनवाणी का कथन है कि हर एक वस्तु का अस्तित्व ही अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy