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________________ १५४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ आत्मा अनुपम है दीसे रागद्वेष बिना, देखो भवि जीवों तुम अपने में निहार कै। कर्म को न अश कोउ भर्मको न वंश कोऊ, जाकी शुद्धताई में न और आप टारकें। जैसो शिवखेत बसै तैसो ब्रह्म यहाँ लसै, यहाँ वहाँ फेर नाहीं देखिये विचार के। जोई गुण सिद्ध माहिं सोई गुण ब्रह्ममाहि सिद्ध ब्रह्म फेर नाहि निहचै निरधार के॥ उपरोक्त समस्त चर्चा का निष्कर्ष यही है कि भगवान सिद्ध की आत्मा के स्वरूप को उनकी पर्याय के माध्यम से समझा जावे। भगवान सिद्ध की पर्याय अनन्त चतुष्टयरूप भगवान सिद्ध की आत्मा की तो अनन्त गुणों की समस्त पर्यायें पूर्णता व शुद्धता को प्राप्त हो चुकी हैं, अत: उनकी समस्त पर्यायों का विवेचन तो पूर्णत: असम्भव है। इसलिये उनमें मोक्षमार्ग का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये जो मुख्य गुण हों मात्र उन्हीं गुणों के माध्यम से सिद्ध की पर्याय की पूर्णता को हम समझेंगे। नियमसार गाथा १८२ की टीका में कहा है कि :“यह, भगवान सिद्ध के स्वभावगुणों के स्वरूप का कथन है। निरवशेष रूप से अन्तर्मुखाकार - सर्वथा अन्तर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे स्वात्माश्रित निश्चय-परमशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों का विलय होने पर, उस कारण से भगवान सिद्ध परमेष्ठी को केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवलसुख, अमूर्तत्व, अस्तित्त्व, सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं।" उपरोक्त गाथा १८२ की टीका में भगवान सिद्ध के स्वभाव गुणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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