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________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान । (१३९ जिसप्रकार स्वर्णकार अपने पुत्र को मूल्याकंन करने में निष्णात बनाने का प्रयत्न करता है तो सर्वप्रथम वह १०० टंच से शुद्ध स्वर्ण की लकीर कसौटी पर लगाकर और उसके साथ ही अशुद्ध स्वर्णों की भी लकीरें लगाकर उसको देता है। उसके निर्णय के माध्यम से ही उसकी निष्णातता की परीक्षा करता है। जब तक उसके पुत्र के ज्ञान में मिश्रित स्वर्ण और १०० टंच से शुद्ध स्वर्ण का ज्ञान अत्यन्त स्पष्ट नहीं हो जावेगा, तब तक उसके निर्णय में निःशंकता एवं दृढ़ता नहीं आ सकेगी और तब तक वह निष्णात स्वर्णपरीक्षक नहीं हो सकता एवं ठगाया जा सकेगा। इसीप्रकार आत्मलाभ करने का तीव्र जिज्ञासु अनिष्णात आत्मार्थी, अशुद्ध आत्मा में जब शुद्ध आत्मा को खोजने का प्रयास करेगा तो, अपनी आत्मा में खोजने के लिये, १०० टंच के शुद्ध स्वर्ण के समान शुद्ध आत्मतत्त्व का यथार्थ स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट रूप से समझे बिना, अपने में ही विद्यमान शुद्ध स्वभाव को कैसे पहिचान सकेगा, नहीं पहिचान सकेगा और शुद्ध आत्मा के स्पष्ट ज्ञान हुए बिना भेदविज्ञान भी किससे करेगा? कर ही नहीं सकेगा। __जिसप्रकार स्वर्णकार को जबतक शुद्ध स्वर्ण का ज्ञान ही नहीं होगा, तबतक वह अशुद्ध स्वर्ण में कितनी प्रतिशत अशुद्धि है, इसका निर्णय कैसे कर सकेगा, नहीं कर सकेगा। उसीप्रकार अज्ञानी आत्मा को भी जबतक उसको शुद्ध आत्मा का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक वह अशुद्धि को भी अशुद्धि, किस आधार से कह सकेगा, नहीं कह सकेगा अर्थात् उसको उसका भेदविज्ञान करना ही संभव नहीं हो सकता। उपरोक्त सभी कथनों द्वारा यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि शुद्ध आत्मा के स्वरूप का अत्यन्त स्पष्ट, यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान हुए बिना किसी प्रकार भी भेदविज्ञान की पद्धति भी समझने में सफल नहीं हो सकता। तब आत्मलाभ की प्राप्ति तो संभव ही कैसे हो सकती है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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