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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (११७ हटाया जाता है। इसी विषय को परमभावप्रकाशक नयचक्र के पृष्ठ ४३-४४ पर निम्नप्रकार स्पष्ट किया है - “अब रही निश्चय को भूतार्थ-सत्यार्थ और व्यवहार को अभूतार्थअसत्यार्थ कहने वाली बात । सो इसका आशय यह नहीं है कि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ है, उसका विषय है ही नहीं। उसके विषयभूत भेद और संयोग का भी अस्तित्व है, पर भेद व संयोग के आश्रय से आत्मा का अनुभव नहीं होता इस अपेक्षा उसे अभूतार्थ कहा है। निश्चयनय का विषय अभेद-अखण्ड आत्मा है, उसके आश्रय से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। यही कारण है कि उसे भूतार्थ कहा है। समयसार में कहा है :"भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिटठी हवदि जीवो ॥ ११ ॥ “जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टी . इसके संबंध में पूज्य श्री कानजीस्वामी के प्रवचन रलाकर भाग-१ हिन्दी पृष्ठ १४८ के विचार भी द्रष्टव्य हैं :____ “जिनवाणी स्याद्वादरूप है, अपेक्षा से कथन करने वाली है; अत: जहाँ जो अपेक्षा हो वहाँ वही समझना चाहिए। प्रयोजनवश शुद्धनय को मुख्य करके सत्यार्थ कहा है और व्यवहार को गौण करके असत्यार्थ कहा है। त्रिकाली, अभेद शुद्धद्रव्य की दृष्टि करने से जीव को सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए त्रिकाली द्रव्य को अभेद कहकर भूतार्थ कहा है और पर्याय का लक्ष्य छुड़ाने के लिए उसे गौण करके असत्यार्थ कहा है। आत्मा अभेद, त्रिकाली, ध्रुव है, उसकी दृष्टि करने पर भेद दिखाई नहीं देता और भेददृष्टि में निर्विकल्पता नहीं होती, इसलिये प्रयोजनवश भेद को गौण करके असत्यार्थ कहा है। अनन्तकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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