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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (१११ के कहा जाता है तथा उन पर वस्तुओं को भोगने वाला भी आत्मा को कहा जाता है लेकिन आत्मा को प्रदेशों से सभी प्रकार से भिन्न पदार्थों का संबंध, कर्ता-भोक्ता आदि जहाँ आत्मा को बताया है, वे सब आत्मा नहीं है तथा आत्मा के भी नहीं हैं, ऐसा ज्ञान कराने वाले ज्ञान का नाम असद्भूत उपचरित व्यवहारनय कहा गया है। इसीप्रकार यह शरीर जिसका आत्मप्रदेशों के साथ मात्र एक क्षेत्रावगाह संबंध है तथा द्रव्य कर्मों का भी आत्मा से संश्लेषरूप एक क्षेत्रावगाह संबंध है, वे भी सब आत्मा के नहीं हैं, ऐसा ज्ञान कराने वाले ज्ञान का नाम असद्भूत-अनुपचरित व्यवहारनय कहा गया है। इसीप्रकार आत्मा में होने वाले विकारी भाव एवं क्षायोपशमिक भावों का कर्ता-भोक्ता भी आत्मा को कहा जाता है लेकिन वे भी आत्मा नहीं हैं आत्मा उनसे भी भिन्न हैं, ऐसा ज्ञान कराने वाले नय का नाम सद्भूतउपचरित व्यवहारनय कहा गया है तथा आत्मा में ही रहने वाले आत्मा के ही अनन्तगुणों अथवा केवलज्ञानादि पर्यायों के भेदों वाला आत्मा को कहना, लेकिन आत्मा में ऐसे भेद नहीं हैं, ऐसा ज्ञान कराने वाले ज्ञान को सद्भूतअनुचरित व्यवहारनय कहा गया है। पंचाध्यायीकार तो इससे भी आगे बढ़कर ऐसा कहते हैं कि जो आत्मा के प्रदेशों से अत्यन्त भिन्न, ऐसे शरीर एवं शरीर से संबंधित अन्य सभी पदार्थ तो आत्मा से अत्यन्त भिन्न प्रत्यक्ष दिखते हैं, अतः उनको तो भिन्न मानना ही चाहिए, उनके कर्ता-भोक्तापने का निषेध करने के लिये नय का प्रयोग मूर्खता है, अर्थात् नयाभास है। इसके अतिरिक्त आत्मा से थोड़ा भी संबंध रखने वाले तथा आत्मा को राग के उत्पादन में कारणभूत बनते हों, मात्र उन्हीं में व्यवहारनयों का प्रयोग कार्यकारी है। उपर्युक्त सभी व्यवहारनयों के प्रयोग के समय निश्चय का विषय, जो पर्याय मात्र से निरपेक्ष, त्रिकाली ज्ञायक भाव है वह तो साथ में रहना ही चाहिए, अन्यथा व्यवहार के विषयों की भिन्नता किससे करेगा। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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