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________________ १०८ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ अतः पर्याय का आश्रय अशांति का उत्पादक होगा एवं ध्रुवस्वभावीद्रव्य का आश्रय ही एकमात्र शांति प्रदाता हो सकता है। आगम के अभ्यासपूर्वक उक्त निर्णय पर पहुँचना चाहिए कि ध्रुवस्वभावी आत्मद्रव्य ही एकमात्र सारभूत है । आत्मानुभूतिरूपी प्रयोजन सिद्धि में हेय उपादेयता मोक्षमार्ग में निश्चयनय अर्थात् निश्चयनय का विषय सदैव सर्वत्र ही उपादेय रहेगा और व्यवहारनय का विषय सदैव एवं सर्वत्र ही हेय रहेगा । निश्चयनय तो वस्तु अर्थात् आत्मवस्तु को यथार्थ जैसी है वैसी ही बताता है। लेकिन वह आत्मवस्तु जिसके समझ में न आई हो अर्थात् जिसने नहीं पहिचाना हो, ऐसे अज्ञानी को उस अभेद अखंड वस्तु को ही, भेदकर के अथवा अन्य का उसमें उपचार करके भी उस ही की ओर संकेत करते हुए समझाने का अर्थात् पहिचान कराने का महान उपकार व्यवहारनय करता है । इस अपेक्षा ही व्यवहारनय को निश्चय का प्रतिपादक कहा गया है। लेकिन व्यवहानय के कथन जैसी ही और जितनी ही वस्तु होती नहीं, वस्तु तो अभेद - अखंड और अनुचरित जैसी थी वैसी ही रहती है । इसी कारण व्यवहारनय के विषय को आश्रय करने योग्य ही नहीं वरन् हेय भी कहा जाता है। लेकिन समझने के लिये भी अगर उसको हेय मानेगा तो वस्तु ही समझ में नहीं आवेगी और अगर वस्तु को ही व्यवहार के कथन जैसा और जितना आश्रयभूत मान लिया गया तो विपरीत मान्यता रूपी अज्ञान को और भी दृढ़ करके संसार वृद्धि करेगा । पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक ६ में कहा भी है कि - अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वाराः देशयन्तत्यभूतार्थम् व्यवहारमेव केवलमेवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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