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________________ ६०) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ तो मात्र दो ही तत्त्व रह जाते हैं एक तो स्वज्ञेयरूप जीवतत्त्व और दूसरी ओर समस्त ज्ञेय मात्र। लेकिन ज्ञेय तो ज्ञायकतत्त्व से पर होने के कारण, उनमें तो मेरे ज्ञान का अंशमात्र भी नहीं मिल सकता । अत: उनका जीवतत्त्व में तो समावेश हो नहीं सकता, इस कारण उन सबको अजीवतत्त्व में समावेश कर सामान्य कथन की पद्धति भी जिनवाणी में है। विस्तार रुचि शिष्यों को यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए ही आत्मा के समस्त भावों को सात तत्त्वों के माध्यम से भिन्न-भिन्न करके समझाया गया है; क्योंकि अनादि काल से अज्ञानीजीव परपदार्थों एवं अपने ही विकारी-निर्विकारी भावों स्वरूप ही अपना अस्तित्व मानता चला आ रहा है । अपना यथार्थ स्वरूप जो ज्ञायक मात्र है, उसे वह एकदम भूला हुआ है। ऐसे जीव को जब तक विस्तारपूर्वक कथन करके उन सबका भिन्न-भिन्न स्वरूप समझाकर, विश्वास जागृत नहीं कराया जावेगा तब तक वह अपनी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता को कैसे छोड़ सकेगा? अनादिकाल से अपने स्वरूप का ज्ञान उस जीव को हुआ ही नहीं है, अत: उसको विस्तारपूर्वक कथन करके समझाये बिना आत्मा की अनन्त सामर्थ्य का ज्ञान, एवं विश्वास कैसे जागृत हो सकेगा? अतः विस्ताररुचि शिष्यों को वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान कराने के लिए विस्तार से कथन करना अत्यन्त आवश्यक है। विस्तार रुचि शिष्यों की विश्व में सदैव बहुलता है और रहेगी; अत: जिनवाणी में भी विस्तारपूर्वक कथन की ही बहुलता मिलती है। समस्त कथन का तात्पर्य इतना ही है कि, अपने जीवतत्त्वज्ञायकतत्त्व के अनन्त सामर्थ्य का यथार्थ स्वरूप समझकर, जैसे बने वैसे अपना अस्तित्व उस रूप ही मानने का विश्वास अर्थात् श्रद्धा जागृत करनी चाहिए। तथा पर रूप अपने अस्तित्व की मान्यता छोड़कर तथा सन्मुखता छोड़कर मेरा उपयोग अपने ज्ञायक के सन्मुख होकर, उस ही में निवास करे ऐसी उग्र रुचि जागृत होनी चाहिए। मेरे जीवतत्त्व को स्वज्ञेय के रूप में स्वीकार करने का मात्र यही अभिप्राय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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