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________________ १८४) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ मान्यता है। यह मान्यता जबतक जीवित रहेगी, तबतक ज्ञान परलक्ष्यी ही बना रहेगा। उनरोक्त मान्यता विसर्जित होकर, यथार्थता समझ में आवेगी कि 'मुझे सुख का उत्पादन नहीं करना है बल्कि आकुलतारूपी दुःख का उत्पादन रोकना है' आदि-आदि विचारों द्वारा, यथार्थ निर्णय होकर, त्रिकाली ज्ञायक में मेरापना आकर ज्ञेयमात्र के प्रति परपना एवं उपेक्षाभाव प्रगट हो जावेगा तो ज्ञान स्वत: स्वलक्ष्यी होकर कार्यशील हों जावेगा। करना कुछ नहीं पड़ेगा। अत: प्राणीमात्र का प्रथम से प्रथम कर्तव्य अपनी मान्यता यथार्थ करना है। इस विषय का संकेत आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने समयसार गाथा १४४ की टीका में और समयसार गाथा ३१ की टीका में भी किया है, जो इसी पुस्तक में अन्यत्र दी जा चुकी है। उपरोक्त गाथाओं की टीका में “मन एवं इन्द्रियों को परपदार्थ की प्रसिद्धि की कारणभूत” बताया है। इससे सिद्ध है कि मन एवं इन्द्रियों के द्वारा प्रवर्तन होनेवाला ज्ञान “आत्मा की प्रसिद्धि का कारण नहीं हो सकता । मन और इन्द्रियों को मर्यादा में लाये बिना श्रुतज्ञान आत्म सन्मुख नहीं होगा तथा दोनों के आत्मसन्मुख हुए बिना आत्मानुभूति संभव नहीं है । ऐसा आचार्य महाराज का संकेत है। उपरोक्त वर्णित मन एवं इन्द्रियों को जीतकर मतिज्ञान श्रुतज्ञान को आत्मसन्मुख करनेकी विधि आचार्यश्री ने गाथा ३१ की टीका में समझाई है। समापन इसप्रकार उपरोक्त प्रकरणों में वस्तुस्थिति की यथार्थ चर्चा के माध्यम से हमने ज्ञातृतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व के स्वरूप को समझा, तथा ज्ञातृतत्त्व का जानन स्वभाव होने से, ज्ञेयों का ज्ञान में ज्ञात होना अनिवार्य होते हुये भी, ज्ञानक्रिया ज्ञेयनिरपेक्ष कैसे रहती है, यह भी समझा। साथ ही यह भी समझा कि ज्ञानी का ज्ञेयनिरपेक्ष वर्तनेवाला ज्ञान शग का उत्पादक नहीं होता, वरन् ज्ञेयों के प्रति मध्यस्थ रहते हुये परिणमता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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