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________________ १००) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ ही आत्मा को मानता एवं कहता है। इसप्रकार स्वयं जाननेवाला होने पर भी अज्ञान के कारण स्वयं का ही अस्तित्व दिखाई नहीं देता, विश्वास में नहीं आता, मात्र क्रोध शरीरादि पर का ही अस्तित्व दिखता है । आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव ने समयसार की गाथा ३४४ की टीका में भी निम्नप्रकार कहा है - “इसलिए ज्ञायकभाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव में अवस्थित होने पर भी कर्म से उत्पन्न हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञान रूप ज्ञान परिणाम को करता है -(अज्ञान रूप ऐसा जो ज्ञान का परिणमन उसको करता है।) इसी का समर्थन समयसार के बंध अधिकार कलश १६४ में भी किया है - “कर्मबंध को करने वाला कारण न तो बहुकर्म योग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, न चलनस्वरूप कर्म (अर्थात् मन-वचन-काय की क्रियारूप योग है, न अनेक प्रकार के करण हैं और न चेतन-अचेतन का घात है, किन्तु 'उपयोग भू' (उपयोगरूपी भूमि) अर्थात् आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है वही एकमात्र वास्तव में पुरुषों के बन्ध का कारण है ॥ १६४॥" इसप्रकार स्पष्ट है कि अज्ञानी आत्मा को, अपने आप के अस्तित्व का ही विश्वास नहीं होने के कारण, अपने स्वयं का कार्य जो ज्ञान का उपयोग, वह स्पष्ट दिखाई देने पर भी दिखाई नहीं देता, मात्र पर का अस्तित्व ही दिखता है। अज्ञानी कहता है, मुझे क्रोध आया, मान आया इत्यादि इस पर विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञानी भी क्रोध की उत्पत्ति के काल में ही अव्यक्त रूप से अपने ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार तो कर रहा है और वह भी क्रोध के पहिले । तभी तो भाषा निकली है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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