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________________ ९२ ] [ सुखी होने का उपाय उस कार्य का असली उत्पादक कौन है, तथा असली उत्पादक नहीं होते हुए भी उसको कारण कहने में क्या रहस्य है तथा मेरे को किसको सत्य मानने से वीतरागता का उत्पादन होगा आदि आदि द्वारा यथार्थ निर्णय करना चाहिये । स्वभावदृष्टि वीतरागता की एवं संयोगी सरागता की उत्पादक स्वभावदृष्टि से कार्य की उत्पत्ति मानने वाले की स्वाधीन दृष्टि होने से, परसंयोग की अपेक्षा नहीं रहती निमित्त तथा परसंयोग को जुटाने की उत्सुकता समाप्त हो जाने से आत्मा की कर्तृत्वबुद्धि टूट जाती है और ज्ञायकपने की श्रद्धा जाग्रत होने से वीतरागता की उत्पत्ति होती है। फलत: क्रमशः रागादि का अभाव होने लगता है और वीतरागता की वृद्धि प्रारंभ हो जाती है। निमित्ताधीन दृष्टि से, कार्य की उत्पत्ति माननेवाले की हमेशा पराधीन दृष्टि बनी रहती है तथा परसंयोगों को अनुकूल करने का एवं प्रतिकूल परिस्थितयों को बदल देने का विश्वास होने से कर्तृत्वबुद्धि दृढ़ होती है । फलत: निरंतर संयोगों निमित्तों को अनुकूल करने एवं प्रतिकूलता हटाने के प्रयासों में ही दत्तचित्त रहता है— घानी के बैल की तरह २४ घण्टे लगा रहता है। फलस्वरूप उन संयोगों को अपने प्रयासों के अनुकूल नहीं होने पर राग और द्वेष बढ़ाता है, वे पर निमित्त इसके आधीन तो हैं नहीं जो इसकी इच्छा के अनुकूल परिणम जावें, उनका परिणमन उन द्रव्यों का स्वतंत्र कार्य हैं, वे तो अपनी-अपनी योग्यतानुसार ही परिणमेंगे, इसका राग-द्वेष करना तो निरर्थक ही रहा । फलतः संयोगी दृष्टि सरागता की ही उत्पादक है । शंका :कार्य की सम्पन्नता में पुरुषार्थ का स्थान उपरोक्त कथनों से तो ऐसा लगता है कि जब सभी कार्य अपने-अपने समय पर स्वतंत्रतया अपने कारणों से होते रहते हैं, कोई उनमें व्यवधान भी नहीं कर सकता तथा साधक भी हो सकता नहीं, तब तो पुरुषार्थ की कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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