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________________ ७२] [ सुखी होने का उपाय अन्य दृष्टि से भी इस विषय पर गम्भीरता से विचार किया जावे तो ज्ञान में स्पष्ट होगा कि उपरोक्त छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य तो अचेतन हैं, उनमें ज्ञान का अंश भी नहीं है, अत: वे यह जानते ही नहीं है कि दूसरे का क्या हो रहा है, ऐसी स्थिति में वे कैसे किसी के अनुकूल या प्रतिकूल बन सकते है ? जैसे धर्मद्रव्य एवं अधर्मद्रव्य दोनों के कार्य परस्पर विपरीत हैं, धर्मद्रव्य तो गतिमान जीव-पुद्गल को निमित्त कहा जाता है, अधर्मद्रव्य गतिपूर्वक ठहरने वाले द्रव्यों के लिए निमित्त कहा जाता है और दोनों ही द्रव्य हर समय परिणमन तो कर ही रहे हैं तब कौन से द्रव्य ने किसी भी समय दूसरे द्रव्य के लिए क्या किया? निष्कर्ष यह निकलता है कि जीव तथा पुद्गलों में से जो भी गतिमान होगा उसको धर्मद्रव्य अनुकूल पड़ने से उस परिणमन में निमित्त कह दिया जाता है तथा उसी समय अन्य सभी द्रव्य अभावात्मक निमित्त हैं। उसी समय गतिपूर्वक स्थित होते हुए द्रव्यों को अधर्मद्रव्य अनुकूल निमित्त कहा जाता है तथा उसी समय बाकी के सभी द्रव्य अभावात्मक निमित्त कहे जाते हैं। उसी समय अन्य भी तो सारे के सारे द्रव्य एकसाथ परिणमन कर ही रहे हैं, तब यह अनुकूलता-प्रतिकूलता का भेद कौन करेगा? विचारने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल- ये पाँचों द्रव्य तो अचेतन होने से अनुकूलता-प्रतिकूलता करने में असमर्थ ही हैं वे द्रव्य अनुकूल-प्रतिकूल रूप दूसरे के लिए कैसे बन सकेंगे जबकि वे जानते ही नहीं कि दूसरे किसी का अस्तित्व भी जगत में है अथवा नहीं। निष्कर्ष यही निकलता है कि कोई किसी के परिणमन में साधक बाधक नहीं होता है, यही विश्व की सुन्दर व्यवस्था है। विश्व व्यवस्था में जीवद्रव्य की स्थिति प्रश्न :- यहाँ कोई कह सकता है कि उपर्युक्त कथन में पाँचों अचेतन द्रव्यों की स्थिति बताई, लेकिन विश्व व्यवस्था में जीवद्रव्य की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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