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________________ [ सुखी होने का उपाय विश्व व्यवस्था में पाँच अचेतन द्रव्यों की व्यवस्था छह द्रव्य अर्थात् अनंत जीवद्रव्य, अनंत पुद्गल परमाणु, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य तथा असंख्यात कालाणु, इसप्रकार जाति अपेक्षा छह तथा संख्या अपेक्षा अनन्तानंत वस्तुओं के समुदाय को ही लोक अर्थात् विश्व कहते हैं। इस विश्व की अनंतानंत वस्तुओं में से हर एक वस्तु हर समय अर्थात् एक सेकण्ड के भी असंख्यातवें भाग में अपनी पर्यायों को यानी अवस्थाओं को पलटती ही रहती है । कोई ऐसा समय नहीं हो सकता जब सभी वस्तुएँ अपनी-अपनी पूर्व अवस्था को छोड़कर नवीन नवीन अवस्था धारण नहीं करती हों । तात्पर्य यह है कि काल के छोटे से छोटे काल यानी एक समय मात्र में भी विश्व में रहने वाली समस्त अर्थात् अनंतानंत वस्तुएँ एक साथ ही अपना-अपना परिणमन करती ही हैं, लेकिन फिर भी कोई भी किसी में हस्तक्षेप नहीं करती, यही विश्व की व्यवस्था है। इस ही बात का आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा ३ की टीका में निम्नप्रकार से स्पष्ट किया है : ७० ] “इसलिए धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल, जीवद्रव्य स्वरूप लोक में सर्वत्र जो कुछ जितने पदार्थ हैं वे सब निश्चय से वास्तव में एकत्व निश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकार से संकर, व्यतिकर आदि सभी दोष आ जायेंगे । वे सब पदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अनन्त धर्मों के चक्र को - समूह को चुम्बन करते हैं- स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाह रूप से तिष्ट रहे हैं, तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते, पररूप परिणमन न करने से अपनी अनन्त व्यक्ति प्रगटता नष्ट नहीं होती, इसलिए जो टंकोत्कीर्ण की भाँति शाश्वत स्थिर रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनों की हेतुता से निमित्त भाव से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं-टिकाये रखते हैं ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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