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________________ ५२] [ सुखी होने का उपाय है। अर्थात् पुद्गल को अणुरूप रहना ही पुद्गल का धर्म है और स्कन्ध रूप दशा ही उसकी अधर्म पर्याय है। इसके अतिरिक्त पुद्गल में रहने वाले स्पर्श रस गंध वर्ण आदि अनंत गुण कभी विपरीतरूप नहीं होते अर्थात् वे अपने-अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य स्वभावरूप कभी नहीं होते एवं साथ ही उनमें से कोई, गुण, उलटा अर्थात् विपरीत भी नहीं होता। जिसप्रकार कि जीव के गुण क्षमा के विपरीत क्रोध हो जाना आदि आदि। हर एक गुण अपने-अपने गुणों में ही कम-ज्यादा होते हुए निरन्तर उत्पाद-व्यय करते रहते हैं। इसीप्रकार पुद्गल का स्वभाव अचेतनपना है। अत: इस पुद्गल ने अनादिकाल से कभी अपने अचेतन स्वभाव को छोड़कर चेतनरूप परिणमन नहीं किया, क्योंकि हर एक वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने-अपने स्वभाव में ही परिणमन करती रहती हुई अनादि अनन्त कायम बनी रहती है। यह आगम, अनुमान, अनुभव सभी से पूर्णतया सिद्ध होती है। जीव नामक वस्तु का स्वभाव अब इस ही प्रकार जीवद्रव्य के स्वभाव के संबंध में भी समझना है। इसका समझना ही मेरे लिए मूल प्रयोजनभूत विषय है, क्योंकि मैं स्वयं ही जीवद्रव्य हूँ तथा मुझे मेरे लिए ही मेरे में धर्म करना है, अत: यथार्थतया तो मुझे मेरा ही धर्म अर्थात् स्वभाव समझना है। __ आत्मा भी एक द्रव्य है। उसमें भी अनंतगुण, स्वभाव, अर्थात् धर्म हैं। लेकिन उन सबमें से ऐसे असाधारण धर्म अर्थात् स्वभाव को मुख्य बनाकर समझना चाहिये । वह स्वभाव ऐसा होना चाहिए जो अकेले जीव में ही तो मिले और अन्य किसी द्रव्य में नहीं मिले एवं उसके बिना जीव कहीं भी कभी नहीं रहे, ऐसे ही स्वभाव विशेष को जीव का लक्षण कहा जा सकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001862
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size7 MB
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