SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना 73 परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें जो कुछ लिखा गया है, वह सब अक्षरशः गुरु-परम्परा से प्राप्त हुअा है। प्रस्तुत गणधरों की शंकात्रों के विषय में सबसे बड़ा बाधक प्रमाण तो यह है कि चौदह पूर्वधर भद्रबाहु-कृत माने गये कल्पसूत्र में इस विषय में संकेत तक भी नहीं है, अत: इस सम्बन्ध में जो सम्भावना प्रतीत होती है, उसका निर्देश आवश्यक है । बहुत सम्भव है कि आगम के गम्भीर अभ्यास के परिणाम-स्वरूप उस समय चर्चा-ग्रस्त दार्शनिक विषयों को उन्होंने गणधरों की शंका के बहाने व्यवस्थित कर लिया हो। सामान्यत: दार्शनिक चर्चा ब्राह्मणों में हुना करती थी । ब्राह्मणों के मुख्य शास्त्र वेद थे, अतः प्राचार्य भद्रबाहु ने इन शंकाओं का सम्बन्ध भी वेद के वाक्यों से स्थापित करने का कौशल दिखाया है, यह बात मानने में औचित्य को क्षति नहीं पहुँचती। __ प्राचार्य भद्रबाहु के परवर्ती दिगम्बर ग्रन्थों में भी कहीं-कहीं गणधरों की जीवादि सम्बन्धी शंकाओं का उल्लेख मिलता है। इससे भी यह बात कही जा सकती है कि प्राचार्य भद्रबाहु के समय तथा उसके उपरान्त भी इन मान्यताओं ने गहरी जड़ें जमा दी थीं। कुछ भी हो, किन्तु एक बात निश्चित है कि गणधरों के मन की शंका वेदों के परस्पर विरोधी अर्थ वाले वाक्यों के आधार पर ही बताई गई है और भगवान् महावीर पहले तर्क द्वारा और तत्पश्चात् वेदवाक्यों का ही यथार्थ अर्थ करके उनका समाधान करते हैं, यह बात महत्वपूर्ण है । इस में हम उस भावना का दर्शन कर सकते हैं जो जैन धर्म की सर्व-समन्वयशील भावना है। सामान्यतः दार्शनिकों के विषय में यह बात देखी जाती है कि जब उन्हें अपनी मान्यता की बात का प्रतिपादन करना होता है तो वे प्रतिपक्षी के मत के खण्डन की ओर ही दृष्टि रखते हैं और अपने सन्मुख अपनी परम्परा के ही प्रमाण रखते हैं । ऐसी स्थिति में चर्चा के अन्त में दोनों वहीं के वहीं रहते हैं, क्योंकि दोनों में अपने मत का कदाग्रह होता है। भारतीय सभी दर्शनों के विषय में अधिकतर यही बात दिखाई देती है, किन्तु यहाँ इससे विपरीत मार्ग का आश्रय लिया गया है। इसमें दोनों पक्ष वेद के अाधार पर ही लिए गये हैं और कथा भी वीतराग कथा है । प्रतिपक्षी को पराजित कर विजय प्राप्त करने की भावना के स्थान पर प्रतिपक्षी को सद्बुद्धि प्रदान करने की भावना यहाँ मुख्य है, अतः भगवान् महावीर वेद-वाक्यों का ही यथार्थ अर्थ बताते हैं और उसके समर्थन में भी अन्य वेद-वाक्य ही उपस्थित करते हैं। प्रतिपक्षी अपनी वेद-भक्ति के कारण भी शीघ्र ही भगवान् महावीर की बात मानले, इस योजना से इस व्यवहार-कुशलता का दिग्दर्शन कराया गया है । इसमें भगवान महावीर को पूर्ण सफलता भी मिली है । इससे एक और बात भी सिद्ध होती है. वह यह है कि किसी भी शास्त्र का सर्वथा तिरस्कार करने की अपेक्षा उस शास्त्र का युक्ति-युक्त अर्थ निकाल कर उपयोग करने की भावना का प्रचार करना चाहिए। प्राचार्य की यह अभिरुचि जैन-दृष्टि का ही अनुसरण करने वाली है । नन्दी सूत्र में कहा है कि महाभारत जैसे शास्त्र एकान्त मिथ्या अथवा एकान्त-सम्यक् नहीं, किन्तु जो मनुष्य उसे पढ़ता है उसकी दृष्टि के अनुसार उसका परिणमन होता है, अर्थात् जो वाचक सम्यग्-दृष्टि है, वह स्वयं उस शास्त्र को पढ़कर उसका उपयोग निर्वाण-मार्ग में करता है, अतः उसके लिये वह शास्त्र सम्यक् है। किन्तु यदि मिथ्या-दृष्टि 1. महापुराण (पुष्पदन्त) 97,6; त्रिलोक प्रज्ञप्ति 1.76-79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy