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________________ प्रस्तावना आचार्य भद्रबाहु के मतानुसार भगवान् ने केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् सबसे पहले प्रर्थतः उपदेश सामायिक का ही दिया था । अर्थात् उनके प्रथम उपदेश में सामायिक का अर्थ समाविष्ट था। यही नहीं, वाद के पश्चात् गणधरों ने भी सर्वप्रथम सामायिक का ही उपदेश ग्रहण किया था । इस उपदेश से गणधरों को क्या लाभ हुआ ? इस प्रश्न के उत्तर में प्राचार्य कहा है कि, उन्हें इससे शुभाशुभ पदार्थों का ज्ञान हुआ । इस ज्ञान के कारण संयम और तप में उनकी प्रवृत्ति हुई। इससे वे नवीन पाप कर्म से निवृत्त हुए, बद्ध कर्मों के नाश में समर्थ बने, अशरीरी हुए और अशरीरी होकर उन्होंने अव्याबाध मोक्ष-सुख को प्राप्त किया | 2 ने श्रमण दीक्षा में सर्वप्रथम सामायिक चारित्र को ही ग्रहण किया जाता हैं । वस्तुतः यही चारित्र परिपूर्ण होने पर यथाख्यात अथवा सम्पूर्ण चारित्र कहलाता है और वही मोक्ष का साक्षात् कारण बनता है । इस प्रकार ज्ञान और चारित्र दोनों में सामायिक की ही प्रधानता है । इसीलिए आचार्य जिनभद्र ने नियुक्ति सहित केवल इस सामायिक अध्ययन की विशेषरूपेण व्याख्या करना उचित समझा और विशेषावश्यक भाष्य नामक एक महान् ग्रन्थ की रचना की । विशेषावश्यक भाष्य में गरणधरवाद का प्रसंग आवश्यक नियुक्ति में सामायिक अध्ययन की व्याख्या करते हुए उपोद्घात रूप में प्राचार्य भद्रबाहु ने कुछ प्रश्नों का समाधान किया है । उसमें उन्होंने सामायिक के निर्गम अर्थात् श्राविर्भाव के प्रश्न की चर्चा की है और इन प्रश्नों का समाधान किया है कि, सामायिक किस परिस्थिति में, किससे, कब और कहां प्राविर्भूत हुई । इसी चर्चा के अन्तर्गत उन्होंने यह भी बताया है कि भगवान् महावीर के जीव ने पूर्वभव में जंगल में रास्ता भूले हुए साधुयों को मार्ग बताकर क्रमशः किस प्रकार मिथ्यात्व से बाहर निकल कर सम्यक्त्व की प्राप्ति की । भगवान् महावीर उत्तरोत्तर कषायों का क्षय करते हुए जिस प्रकार सर्वज्ञ के पद पर पहुँचे, उसका भी वहां विस्तारपूर्वक वर्णन है । अन्त में उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया है कि, छद्मस्थज्ञान के नष्ट होने पर जब उन्हें अनन्त केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई, तब वे विहार कर रात्रि के समय महासेन वन में पहुंचे । अर्थात् मध्यमापावा में इस महासेन वन में देवताओं ने धर्म चक्रवर्ती भगवान् महावीर के द्वितीय समवसरण - महासभा की रचना की । इसी नगरी में सोमिलार्य ब्राह्मण ने यज्ञ 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 3 आव० नि० 733-35, 742-45 आव० नि० 745-48 आव० नि० 140-141, 145 विशेषा० भाष्य में 'मिच्छत्ता इतमात्रो' इत्यादि गाथा को भाष्य की गाथा माना है, आवश्यक हारिभद्रीय में भी इस गाथा की व्याख्या नहीं की गई, किन्तु विशे० के संपादक ने उस गाथा को नियुक्ति की गाथा माना है । पीछे छपा हुआ मूल देखें । आव० नि० 146 (पंथं किर 'देसित्ता') आव० नि० 539 आव० नि० 540 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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