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________________ गणधरवाद 20 ] गणधर फिर भी अभी तुम्हारे मन में सन्देह बाकी है। अतः अब यह अन्तिम प्रमाण ऐसा देता हूँ कि जिससे तुम्हारे सन्देह का सर्वथा निराकरण हो जाएगा : तुम्हें मेरा यह कथन सत्य मानना चाहिए कि जीव है / कारण यह है कि यह मेरा वचन है / तुम्हारे संशय का प्रतिपादन करने वाला मेरा व वन तुमने सत्य माना है, इसी प्रकार इसे भी स्वीकार करना चाहिए। अथवा 'जीव है' यह मेरा वचन तुम्हें सत्य मानना चाहिए क्योंकि यह सर्वज्ञ का वचन है / तुम्हारे इष्ट सर्वज्ञ के वचन के समान मेरा वचन भी तुम्हें प्रमाण मानना चाहिए / [1577] ___ इन्द्रभूति-आप सर्वज्ञ हैं तो इसमें क्या बात है ? क्या सर्वज्ञ झूठ नहीं बोलता? सर्वज्ञ झूठ नहीं बोलता __भगवान् --नहीं, कभी नहीं / कारण यह है कि मुझ में भय, राग, द्वष, मोह आदि दोष जिनके वशीभूत होकर मनुष्य झूठा अथवा हिंसक वचन बोलता है, नहीं हैं। अतः मेरे समस्त वचन ऐसे ही सत्य और अहिंसक हैं जैसे कि ज्ञाता मध्यस्थ के वचन / अतः मेरे वचनों पर विश्वास करके तुम्हें जीव का अस्तित्व मानना चाहिए / [1578] इन्द्रभूति- मैं यह कैसे समझे कि आप सर्वज्ञ हैं ? भगवान् सर्वज्ञ क्यों ? भगवान्–मैं तुम्हारे सब संशयों का निवारण करता हूँ। यही मेरी सर्वज्ञता का प्रमाण है। जो सर्वज्ञ नहीं होता, वह सर्व संशयों का निवारण कैसे कर सकता है ? तुम्हें जिस किसी विषय में सन्देह हो--जिन विषयों को तुम न जानते हो, उन सब को मुझ से पूछ कर तुम तसल्ली कर सकते हो कि मैं सब संशयों का निवारण करने वाला सर्वज्ञ हूँ या नहीं। [1576] इस प्रकार हे गौतम ! उपयोग लक्षण वाले जीव को सब प्रमाणों से सिद्ध स्वीकार कर लो। इस जीव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध / संसारी जीव के पुनः दो भेद हैं—त्रस और स्थावर / यह बात भी तुम्हें जान लेनी चाहिए। [1580] जीव एक ही है इन्द्र भूति-आप जीव को नाना कहते हैं, किन्तु वेदान्त-शास्त्र में कहा गया है कि जीव-ब्रह्म एक ही है। जैसे कि "भिन्न-भिन्न भूतों में एक ही आत्मा प्रतिष्ठित है। फिर भी वह जल में चन्द्र के प्रतिबिम्ब के समान एक-रूप और नानारूप दिखाई देती है।'1 1. एक एव हि भूतात्मा भूते भूते प्रतिष्ठितः / एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ब्रह्मबिन्दु उप० 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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