SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन्द्रभू ते / झीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा निषेध का अर्थ भगवान-मैं इस नियम पर दृढ़ हैं कि जो सर्वथा असत् अर्थात् अविद्यमान होता है, उसका निषेध नहीं हो सकता और जिसका निषेध होता है वह संसार में कहीं न कहीं विद्यमान होता ही है / वस्तुतः निषेध से वस्तु के सर्वथा अभाव का प्रतिपादन नहीं होता, किन्तु उसके संयोगादि के अभाव का प्रतिपादन होता है। अर्थात् देवदत्त जैसे किसी भी पदार्थ का जब हम निषेध करते हैं तब उसके सर्वथा अभाव का प्रतिपादन नहीं करते, किन्तु अन्यत्र विद्यमान देवदत्त आदि का अन्यत्र संयोग नहीं, अथवा समवाय नहीं, अथवा सामान्य या विशेष नहीं; यही बात बताना हमें इष्ट होता है। जब हम यह कहते हैं कि 'देवदत्त घर में नहीं है' तब इस का तात्पर्य केवल यह होता है कि देवदत्त और घर दोनों का अस्तित्व होने पर भी दोनों का संयोग नहीं। इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि 'खर-विषाण नहीं' तब इसका सार यही है कि खर और विषाण दोनों पदार्थ अपने-अपने स्थान पर विद्यमान हैं, परन्तु उन दोनों में समवाय सम्बन्ध नहीं है / इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि 'दूसरा चन्द्र नहीं है' तब चन्द्र का सर्वथा निषेध नहीं होता किन्तु चन्द्र सामान्य का निषेध होता है। अर्थात् एक व्यक्ति में सामान्य का अवकाश नहीं। जब हम यह कहते हैं कि 'घड़े जितना बड़ा मोती नहीं है' तब मोती का सर्वथा निषेध अभिप्रेत नहीं होता, किंतु घट के परिमाण रूप विशेष का मोती में अभाव बताना ही हमारा लक्ष्य होता है। इसी प्रकार 'प्रात्मा नहीं है' इस कथन में आत्मा का सर्वथा अभाव अभिप्रेत नहीं होना चाहिए, किंतु उनके संयोगादि का ही निषेध मानना चाहिए। इन्द्रभूति--आपके नियमानुसार यदि मेरे सम्बन्ध में कभी यह कहा जाए कि 'तुम त्रिलोकेश्वर नहीं' तो मैं तीनों लोकों का ईश्वर भी बन जाऊंगा, क्योंकि मेरी त्रिलोकेश्वरता का निषेध किया गया है। किन्तु आप यह जानते हैं कि मैं तीन लोक का ईश्वर नहीं हूँ। अतः यह नियम अयुक्त है कि जिसका निषेध किया जाए, वह पदार्थ होना ही चाहिए / अपि च, आप के मत में निषेध उक्त चार प्रकार के हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि 'पाँचवें प्रकार का निषेध नहीं है किंतु आप के बताए हुए नियम से निषेध का पाँचवाँ प्रकार भी होना चाहिए। कारण यह है कि आप उसका निषेध करते हैं भगवान्-तुम मेरे कथन के तात्पर्य को भलीभाँति समझ नहीं सके, अन्यथा ऐसा प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता / जब यह कहा जाता है कि 'तुम तीन लोक के ईश्वर नहीं हो', तब तुम्हारी ईश्वरता का सर्वथा निषेध अभिप्रेत नहीं होता, क्योंकि तुम अपने शिष्यों के ईश्वर तो हो ही / अतः त्रिलोकेश्वरता रूप विशेष मात्र का ही निषेध अभीष्ट है। इसी प्रकार पाँचवें प्रकार के निषेध का तात्पर्य इतना ही है कि प्रतिषेध पाँच संख्या से विशिष्ट नहीं है / प्रतिषेध का सर्वथा अभाव अभिप्रेत ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy