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________________ इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा 15 और असंघात रूप में सिद्ध करना आपको इष्ट है, किन्तु उक्त हेतों से कर्तारूप जो जीव सिद्ध होता है वह कुम्भकार आदि के समान मूर्त, अनित्य और संघात रूप सिद्ध होता है। प्रात्मा कथंचित् मूर्त है भगवान् - उक्त हेतुनों द्वारा संसारी आत्मा की कर्ता आदि के रूप में सिद्धि अभिप्रेत होने से तुम्हारे द्वारा निर्दिष्ट किए गए दोषों का यहाँ स्थान नहीं है, क्योंकि संसारी आत्मा आठ कर्मों से आवृत होने और सशरीर होने के कारण कथंचित् मूर्तादि रूप ही है / [1570] संशय का विषय होने से जीव है हे सौम्य ! आत्मा का साधक एक अनुमान यह भी है—तम्हारे में जीव है ही, क्योंकि तुम्हें इस विषय में संशय है। जिस विषय में संशय हो, वह विद्यमान होता है / जैसे कि स्थाणु (ठ) और पुरुष के विषय में संशय होता है और वे दोनों ही विद्यमान होते हैं / जो अवस्तु हो, सर्वथा अविद्यमान हो, उसके विषय में कभी किसी को सन्देह ही नहीं होता। ___ इन्द्रभूति—जिस विषय में संशय होता है, वहाँ संशय के विषयभूत दो पदार्थों में से एक की सत्ता होती है / जैसे कि स्थाणु-पुरुष विषयक सन्देह-स्थल में उक्त दोनों में से कोई एक ही विद्यमान होता है, दोनों नहीं। फिर आप यह कैसे कहते हैं कि संशय का जो विषय हो, वह विद्यमान ही होता है / भगवान्- हे गौतम ! मैंने यह तो नहीं कहा कि जहाँ जिस विषय में सन्देह होता है, वह वहाँ ही विद्यमान होता है / मेरा कथन केवल यह है कि संशय की विषयभूत वस्तु वहाँ या अन्यत्र कहीं भी विद्यमान अवश्य होती है / तुम्हें जीव के विषय में सन्देह है / अतः उसे अवश्य ही विद्यमान मानना चाहिए / अन्यथा उस विषय में सन्देह नहीं हो सकता, जैसे कि छठे भूत के विषय में सन्देह नहीं होता। [1571] इन्द्र भति-यदि संशय का विषयभूत पदार्थ अवश्य विद्यमान होता है तो कई लोगों को खर-शृग के विषय में भी संशय हुआ करता है, अतः गधे के सींग भी विद्यमान मानने पड़ेंगे। भगवान् -मैंने तो यह बात कही ही है कि संशय की विषयभूत वस्तु संसार में कहीं न कहीं अवश्य विद्यमान होनी चाहिए / अविद्यमान में संशय ही नहीं होता / प्रस्तुत में संशय विषयभूत सींग गधे के चाहे न हों, किन्तु अन्यत्र गाय आदि के तो होते ही हैं / यदि विश्व में सींग का सर्वथा अभाव हो, तो उस विषय में किसी को सन्देह ही न हो / यही बात विपर्यय ज्ञान अथवा भ्रम ज्ञान के विषय में समझ लेनी चाहिए। यदि संसार में सर्प का सर्वथा अभाव हो तो रस्सी के टुकड़े में सर्प का भ्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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