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________________ 11 इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा इन्द्रभूति-अपनी देह में मुझे आत्मा का प्रांशिक प्रत्यक्ष है, इस बात को मानने में मुझे अब कोई अपत्ति नहीं। किन्तु दूसरों की देह में आत्मा है, यह मैं कैसे जान सकता हूँ? अन्य देह में प्रात्म-सिद्धि भगवान्--इसी प्रकार अनुमान से तुम यह समझ लो कि दूसरों की देह में भी विज्ञानमय आत्मा है। दूसरों के शरीर में भी विज्ञानमय जीव है, क्योंकि उनकी इष्ट में प्रवृत्ति प्रोर अनिष्ट से निवृत्ति देखी जाती है। जैसे हमारी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति होती है, इसलिए हमारे शरीर में आत्मा है। इसी प्रकार दूसरों के शरीर में भी प्रात्मा की सत्ता होनी चाहिए। यदि दूसरों के शरीर में आत्मा न हो, तो घटादि के समान उनकी भी इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति न हो / अतः पर-देह में भी आत्मा माननी चाहिए। [1564] ___ इन्द्रभूति—आपके साथ इतनी चर्चा करने से यह तो ज्ञात होता है कि आत्मा है, किन्तु मेरे विचारों में आपको यदि कोई असंगति प्रतीत हुई हो तो उसे प्रकट करना उचित होगा / आत्म-सिद्धि के लिए अनुमान भगवान्तुमने जो यह विचार किया था कि 'जीव के किसी भी लिंग का जीव के साथ सम्बन्ध प्रत्यक्ष प्रमाण से पूर्वगृहीत है ही नहीं, जैसे कि शश के साथ उसके शृग कभी देखे ही नहीं गए, अतः लिंग द्वारा जीव का ग्रहण नहीं हो सकता-इत्यादि [1565], उस विषय में यह जान लेना चाहिए कि यह एकान्त नियम नहीं है कि लिंगी-साध्य के साथ लिंग-हेतु को पहले देखा हो तो ही बाद में लिंग से साध्य की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं / कारण यह है कि हम ने भूत को हास्य, गान, रुदन, हाथ-प.व मारने की क्रिया अक्षि-विक्षेप आदि लिंगों के साथ कभी देखा नहीं, फिर भी इन लिंगों को देख कर दूसरे के शरीर में भूत का अनुमान होता है। उसी प्रकार प्रात्मा के साथ लिंग-दर्शन के अभाव में भी प्रात्मा का अनुमान हो सकता है, यह स्वीकार करना चाहिए / [1566] और, आत्म-साधक अनुमान प्रयोग इस प्रकार भी हो सकता है—देह का कोई कर्ता होना चाहिए, क्योंकि उसका घट के समान एक सादि और प्रतिनियत निश्चित आकार है / जिसका कोई कर्ता नहीं होता, उसका सादि और प्रतिनियत आकार भी नहीं होता-जैसे कि बादलों का। मेरु आदि नित्य पदार्थों का प्राकार प्रतिनियत तो होता है किन्तु उसकी आदि नहीं होती, क्योंकि वे नित्य हैं। अतः हेतु में सादि विशेषण लगाया गया है। इससे उक्त हेतु द्वारा मेरु जैसे प्रतिनियत 1. गाया 1551 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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