SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अन्वयार्थः-[ खरभायपंकमाए ] खरभाग पंकभागमें [ भावणदेवाण ] भवनवासियों के [ भवणाणि ] भवन [ तहा ] तथा [वितरदेवाण ] व्यन्तर देवोंके निवास [ होंति ] हैं [दुहपि य तिरियलोयम्मि] और इन दोनोंके तिर्यग्लोकमें भी निवास हैं । भावार्थ:-पहिली पृथ्वी रत्नप्रभा एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है । उसके तीन भाग हैं, उनमें खरभाग सोलह हजार योजनका है। उसमें असुरकुमार बिना नौ कुमार भवनवासियोंके भवन हैं तथा राक्षसकुल बिना सात कुल व्यन्त रोंके निवास हैं। दूसरा पंकभाग चौरासी हजार योजनका है उसमें असुरकुमार भवनवासी तथा राक्षसकुल व्यन्तर रहते हैं । तिर्यग्लोक (मध्यलोक) के असख्याते द्वीप समुद्रों में भवनवासियों के भी भवन हैं और व्यन्तरोंके भी निवास हैं । अब ज्योतिषी, कल्पवासी तथा नारकियोंके स्थान कहते हैं जोइसियाण विमाणा, रज्जूमित्ते वि तिरियलोए वि । कप्पसुरा उड्ढह्मि य, अहलोए होंति णेरइया ॥१४६।। अन्वयार्थः- [जोइसियाण विमाणा ] ज्योतिषो देवोंके विमान [ रज्जमित्ते वि तिरियलोए वि] एक राजू प्रमाण तिर्यग्लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रोंके ऊपर हैं [ कप्पसुरा उड़ढमि य ] कल्पवासी ऊर्ध्वलोकमें है [ णेरइया अहलोए होंति ] नारकी अधोलोकमें हैं। अब जीवोंकी संख्या कहेंगे । पहिले तेजवातकायके जीवोंकी संख्या कहते iho वादरपज्जत्तिजुदा, घणावलिया असंख-भागा दु। किंचूणलोयमित्ता, तेऊ वाऊ जहाकमसो ॥१४७॥ अन्वयार्थः-[ तेऊ वाऊ ] अग्निकाय, वातकायके [ बादरपजत्तिजुदा ] वादरपर्याप्तसहित जीव [ घणआवलिया असंखभागा दु] धन आवलीके असंख्यातवें भाग [किंचणलोयमिचा ] तथा कुछ कम लोकके प्रदेशप्रमाण [ जहाकमसो ] यथा अनुक्रम जानना चाहिये। भावार्थ:-अग्निकायके जीव घनआवलोके असंख्यातवें भाग, वात कायके कुछ कम लोकप्रदेशप्रमाण हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy