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________________ लोकानुप्रेक्षा अब लब्ध्यपर्याप्तका स्वरूप कहते हैं उस्सासट्टारसमे, भागे जो मरदि ण य समाणेदि। एका वि य पज्जत्ती, लद्धि-अपुण्ण हवे सो दु ॥१३७॥ अन्वयार्थः- [ जो उस्सासद्वारसमे भागे मरदि ] जो जीव स्वासके अठारहवें भागमें मरता है [ एका वि य पज्जती ण य समाणेदि ] एक भी पर्याप्तिको पूर्ण नहीं करता है [ सो दु लद्धिअपुण्णो हवे ] वह जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है । अब एकेन्द्रियादि जीवोंके पर्याप्तियोंकी संख्या कहते हैं लद्धियपुगणे पुगणं, पज्जत्ती एयक्ववियलसण्णीणं । चदु पण छक्कं कमसो, पज्जत्तीए वियाणेह ॥१३८॥ अन्वयार्थ:-[ एयक्खवियलसण्णीणं ] एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा संज्ञी जीवके [ कमसो ] क्रमसे [ चदु पण छक्कं ] चार, पांच, छह [ पज्जत्तीए वियाणेह ] पर्याप्तियां जानो [ लद्धियपुण्ण पुण्णं ] लब्ध्यपर्याप्तक अपर्याप्तक है इसके पर्याप्तियां नहीं होती। भावार्थः-एकेन्द्रियादिके क्रमसे पर्याप्तियां कही हैं। यहां असैनीका नाम लिया नहीं सो सैनीके छह, तो असैनीके पांच जानना चाहिये । नित्यपर्याप्तक ग्रहण किये ही हैं. पूर्ण होंगे ही, इसलिये जो संख्या कही है सो ही है । लब्ध्यपर्याप्तक यद्यपि ग्रहण किया है तथापि पूर्ण हो सका नहीं इसलिये उसको अपूर्ण ही कहा ऐसा सूचित होता है । इस तरह पर्याप्तिका वर्णन किया । __अब प्राणोंका वर्णन करते हैं । पहिले प्राणोंका स्वरूप वा संख्या कहते हैं मणवयणकायइंदियणिस्सासुस्सासआउ उदयाणं । जेसिं जोए जम्मदि, मरदि विप्रोगम्मि ते वि दह पाणा॥१३६।। अन्वयार्थ:-[ मणवयणकायइंदियणिस्सासुस्सासमाउ उदयार्ण ] जो मन, वचन काय, इन्द्रिय, स्वासोस्वास और आयु [जेसि जोए जम्मदि ] इनके संयोगसे उत्पन्न हो जीवे [ विओगम्मि मरदि ] वियोगसे मरे [ ते पाणा दह ] वे प्राण हैं और वे दस होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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