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________________ संवरानुप्रेक्षा उसका संवर हुआ । अयोगिजिनमें योगोंका अभाव हुआ, वहां उनका संवर हुआ । इस तरह संवरका क्रम है । ra इसीको विशेषरूपसे कहते हैं गुत्ती समिदी धम्मो, अणुक्खा तह परीसहजओ वि । उक्किट्ठ चारितं, चारितं संवरहेदू विसेसेण 112811 अन्वयार्थः - [ गुची ] मन वचन कायकी गुप्ति [ समिदी ] ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना इस तरह पांच समिति [ धम्मो ] उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म [ अणुवेक्खा ] अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा [ तह परीसहजओ वि ] तथा क्षुधा आदि बाईस परीषहका जीतना [ उक्किङ्कं चारितं ] सामायिक आदि उत्कृष्ट पाँच प्रकारका चारित्र ये [ विसेसेण ] विशेषरूपसे [ संवर हेदू ] संवरके कारण हैं । अब इनको स्पष्टरूप से कहते हैं गुत्ती जोगणिरोहो, समिदी य पमाद-वजणं चेत्र । धम्मो दयापहाणो, सुतत्त- चिंता अप्पेहा ॥६७॥ ४५ अन्वयार्थः - [ जोगणिरोहो ] योगोंका निरोध [ गुती ] गुप्ति है [ समिदी य पमादवजणं चैव ] प्रमादका वर्जन, यत्नपूर्वक प्रवृत्ति समिति है [ दयापहाणो ] दयाप्रधान [धम्मो] धर्म है [ सुतच चिंता अणुप्पेहा ] जीवादिक तत्त्व तथा निजस्वरूपका चितवन अनुप्रेक्षा है । सोवि परीसह विज, छुहादि- पीडाण अइउाणं । सवणाणं च मुणीणं, उवसमभावेण जं सहणं ॥ ६८ ॥ अन्वयार्थः – [ जं ] जो [ अइरउद्दाणं ] अति रौद्र ( भयानक ) [ छुहादिपीडाण ] क्षुधा आदि पीड़ाओंको [ उवसमभावेण सहणं ] उपशमभावों ( वीतरागभावों) से सहना [ सो ] सो [ सवणाणं च मुणीणं ] ज्ञानी महामुनियोंके [ परीसह विजओ ] परीषहोंका जीतना कहलाता है । अप्पसरूत्रं वत्थु ं, चत्तं रायादि एहिं दोसेहिं | सज्झाणम्मि णिलीणं, तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥ ६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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