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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा निधान [ पंचपयारे ] पांच प्रकार [ संसारे ] संसार में [ जीवो ] यह जोव [ अणाइकालं ] अनादिकाल से [ मिच्छत्तदोसेण ] मिथ्यात्वके दोषसे [ भमेइ ] भ्रमण करता है । ३४ अब संसारसे छूटने का उपदेश करते हैं— इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण | तं झायह स-सरूवं, संसरणं जेण गासेइ ॥७३॥ अन्वयार्थः- [ इय संसारं जाणिय ] इस तरह ( पहिले कहे अनुसार ) संसारको जानकर [ सव्वायरेण ] सब तरह के प्रयत्नपूर्वक [ मोहं ] मोहको [ चइऊण ] छोड़कर ( हे भव्यों ! ) [ तं ससरूवं झायह ] उस आत्मस्वरूपका ध्यान करो [ जेण ] जिससे [ संसरणं ] संसार परिभ्रमण [ णासेह ] नष्ट हो जावे । दोहा Jain Education International पंचपरावर्त्तनमयी, दुःखरूप संसार । मिथ्याकर्म उदै वशे, भरमै जीव अपार || ३ || इति संसारानुप्रेक्षा समाप्ता ||३|| एकत्वानुप्रेक्षा इक्को जीवो जायदि, इक्को गन्भम्मि गिहृदे देहं । इक्को बाल जुवाणो, इको वुट्ठो जरागहिओ ॥७४॥ अन्वयार्थः - [ जीवो ] जीव [ इको ] एक ही [ जायदि ] उत्पन्न होता है [ इको ] वह ही एक [ गब्भम्मि ] गर्भ में [ देहं ] देहको [ गिदे ] ग्रहण करता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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