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________________ २२८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पहिला पाया प्रवर्त्तता है । वहाँ यदि मोहकी प्रकृतियोंका उपशम करना प्रारम्भ करता है तो अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय इन तीनों गुणस्थानोंमें समय समय अनन्तगुणी विशुद्धतासे बढ़ता हुआ मोहनीय कर्मकी इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम कर उपशान्त कषाय गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है अथवा मोहकी प्रकृतियोंका क्षय करना प्रारम्भ करता है तो तीनों गुणस्थानोंमें इक्कीस मोहकी प्रकृतियोंका सत्तामें से नाश कर क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । ऐसे शुक्लध्यानका पहिला पाया पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रवर्तता है । सो पृथक् कहिये भिन्न भिन्न, वितर्क कहिये श्रुतज्ञानके अक्षर और अर्थ, तथा वीचार कहिये अर्थका, व्यंजनका और मन वचन कायके योग, इनका पलटना इस पहिले शुक्लध्यानमें होता है । सो अर्थ तो द्रव्यगुण पर्याय है सो द्रव्यसे द्रव्यान्तर गुणसे गुणान्तर पर्यायसे पर्यायान्तर होता है और इसी तरह वर्णसे वर्णान्तर तथा योगसे योगान्तर होता है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि ध्यान तो एकाग्रचित्तानिरोध है, पलटनेको ध्यान कैसे कहा ? इसका समाधान जितने समय तक एक विषय पर रुका सो तो ध्यान हुआ और पलट गया तब दूसरे विषय पर रुका वह भी ध्यान हुआ ऐसे ध्यानकी सन्तानको भी ध्यान कहते हैं । यहाँ सन्तानको जाति एक है उसकी अपेक्षा लेना । उपयोग पलटता है सो ध्याताकी पलटने की इच्छा नहीं है यदि इच्छा हो तो रागसहित होनेके कारण यह भी धर्म ध्यान ही रहे । यहां, रागका अव्यक्त होना केवलज्ञानगम्य है, ध्याताके ज्ञान गम्य नहीं है । आप शुद्धोपयोगरूप हुवा पलटनेका भी ज्ञाता हो है । पलटना क्षयोपशम ज्ञानका स्वभाव है इसलिये यह उपयोग बहुत समय तक एकाग्र नहीं रहता है, इसको 'शुक्ल' रागके अव्यक्त होनेहीके कारण कहा है । अब दूसरा भेद कहते हैंहिस्सेसमोह विलए, खीणकसाए य अंतिमे काले । ससरूवम्मि णिलीणो, सुक्कं ज्झाएदि एयत्तं ॥४८३॥ व्यंजन नाम श्रु तवचनका है जिससे अर्थ विशेष अभिव्यक्त होता है, ऐसे किसी भी श्रुतके वाक्यको व्यंजन कहते हैं। ( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पृष्ठ ४२६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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