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________________ धर्मानुप्रेक्षा १८९ भेद हो जाते हैं। इन भेदोंको अन्य प्रकार से भी किये हैं सो अन्य ग्रन्थोंसे जानना' । ये आत्माकी परिणतिके विकारके भेद हैं सो सबही को छोड़कर अपने स्वरूपमें रमण करे तब ब्रह्मचर्य धर्म उत्तम होता है। , अब शीलवानकी बड़ाई कहते हैं, उक्त चजो ण वि जादि वियारं, तरुणियणकडक्खवाणविद्धो वि । सो चेव सूरसूरो, रणसूरो' णो हवे सूरो ॥१॥ ___ अन्वयार्थः- [जो ] जो पुरुष [ तरुणियणकडक्खबाणविद्धो वि ] स्त्रियोंके कटाक्षरूपी बाणोंसे आहत होकर भी [वियारं ण वि जादि ] विकारको प्राप्त नहीं होता है [ सो चेव सूरमरो ] वह शूरवीरों में प्रधान है [ रणसूरो सूरो णो हवे ] और जो रणमें शूरवीर है वह शूरवीर नहीं है । भावार्थ:-युद्ध में सामना करके मरनेवाले शूरवीर तो बहुत हैं परन्तु जो स्त्रियोंके वशमें नहीं होते हैं ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हैं ऐसे विरले ही हैं वे ही बड़े साहसी हैं, शूरवीर हैं, कामको जीतनेवाले ही बड़े सुभट हैं। ऐसे दस प्रकारके धर्मका वर्णन किया। अब इसको संकोच करते हैं एसो दहप्पयारो, धम्मो दहलक्खणो हवे णियमा । अण्णोण हवदि धम्मो, हिंसा सुहमा वि जत्थत्थि ॥४०४॥ अन्वयार्थ:-[ एसो दहप्पयारो धम्मो णियमा दहलक्खणो हवे ] यह दस प्रकारका धर्म ही नियमसे दस लक्षण स्वरूप धर्म है [ अण्णो जत्थत्थि सुहमा वि हिंसा धम्मो ण हवदि ] और अन्य जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा होय सो धर्म नहीं है । १ अशुभ मन-वचन-कायको त्रिगुप्ति द्वारा घात करे वह शीलके नौ भेद उनको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञाओंसे गुणा करनेसे ६४ ४=३६ उनको पंचेन्द्रिजयसे गुणनेसे १८० भेद उसे पृथ्वी आदि पाँच स्थावर और त्रसकायिकोंमें दो-तीन-चार संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचन्द्रिय यह १० भेदसे गुणने पर १८०० हुए । उसको उत्तम क्षमादि १० धर्मोसे गुणने पर १८००० भेद हुए । षट् प्राभृतादि संग्रह पृ० २६७। ___२ मुद्रित प्रतिमें "रणसूणो', पाठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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