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________________ धर्मानुप्रेक्षा १८१ अप्पाणं हीलदि ] जो अपने आत्माको मदरहित करे-अनादररूप करे [ तस्स मद्दवरयणं भवे ] उस मुनिके मार्दव नामक धर्मरत्न होता है । भावार्थ:-सब शास्त्रोंका जाननेवाला पण्डित हो तो भी ज्ञान मद नहीं करे । यह विचारे कि मेरेसे बड़े अवधि मनःपर्यय ज्ञानी हैं, केवलज्ञानी सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी हैं, मैं क्या हूँ, अल्पज्ञ हूँ । उत्तम तप करे तो भी उसका मद नहीं करे । आप सब जाति कुल बल विद्या ऐश्वर्य तप रूप आदिसे सबसे बड़े हैं तो भी परकृत अपमानको भी सहते हैं उस समय गर्व कर कषाय उत्पन्न नहीं करते हैं वहाँ उत्तम मार्दव धर्म होता है। अब उत्तम आर्जवधर्मको कहते हैं जो चिंतेइ ण वंक, कुणदि ण वंकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णियदोसं, अज्जवधम्मो हवे तस्स ॥३६६॥ अन्वयार्थः-[ जो वकं ण चिंतेइ ] जो मुनि मनमें वक्रतारूप चिन्तवन नहीं करे [वंक ण कुणदि ] कायसे वक्रता नहीं करे [बक ण जंपदे ] वचनसे वक्ररूप नहीं बोले [ य णियदोस ण गोवदि ] और अपने दोषोंको नहीं छिपावे [ तस्सअजवधम्मो हवे ] उस मुनिके उत्तम आर्जव धर्म होता है । भावार्थ:-मनवचनकायमें सरलता हो, जो मन में विचारे सो ही वचनसे कहे, सो ही कायसे करे । मनमें तो दूसरेको भुलावा देने ( ठगने ) के लिये विचार तो कुछ करे, वचनसे और ही कुछ कहे, कायसे और ही कुछ करे, ऐसा करनेसे माया कषाय प्रबल होती है इसलिये ऐसा नहीं करे । निष्कपट हो प्रवृत्ति करे । अपने दोषोंको नहीं छिपावे, जैसेके तैसे बालककी तरह गुरुओंके पास कहे, वहां उत्तम आर्जव धर्म होता है। अब उत्तम शौचधर्मको कहते हैंसमसंतोसजलेणं य, जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंज । भोयणगिद्धिविहीणो, तस्स सउच्च हवे विमलं ॥३६७॥ अन्वयार्थः-[ जो ] जो मुनि [ समसंतोसजलेणं य ] समभाव ( रागद्वेष रहित परिणाम ) और सन्तोष ( सन्तुष्ट भाव ) रूपो जलसे [ तिव्वलोहमलपुंजं ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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