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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पालन होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायके तीव्र मन्द भेदोंसे ग्यारह प्रतिमाके भेद हैं । ज्यों ज्यों कषाय मन्द होती जाती है त्यों त्यों आगेकी प्रतिमाको प्रतिज्ञा होती जाती है । यहाँ ऐसा कहा है कि घरका स्वामित्व छोड़कर गृहकार्य तो पुत्रादिकको सौंपे और आप यथाकषाय प्रतिमाकी प्रतिज्ञा ग्रहण करता जावे, जबतक सकल संयम ग्रहण नहीं करता है तब तक ग्यारहवीं प्रतिमा तक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है । मृत्यु समय आया जाने तब आराधना सहित हो एकाग्रचित्तसे परमेष्ठी के ध्यान में ठहरकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़ता है वह साधक कहलाता है, ऐसा कथन है । १७८ गृहस्थ जो द्रव्यका उपार्जन करे, उसके छह भाग करे । उसमें से एक भाग तो धर्म के लिये दे, एक भाग कुटुम्बके पोषण में दे, एक भाग अपने भोगके लिये खर्च करे, एक अपने स्वजन समूहके लिये व्यवहार में खर्च करे, बाकी दो भाग रहे वे अमानत भण्डार में रक्खे, यह द्रव्य बड़ी पूजन अथवा प्रभावना तथा काल दुकालमें काम आवे । ऐसा करने से गृहस्थ के आकुलता उत्पन्न नहीं होती है, धर्मका पालन होता है | यहाँ पर संस्कृत टीकाकारने बहुत कथन किया है । पहिले गाथाके कथनमें अन्य ग्रन्थोंका कथन सिद्ध होता है ऐसा कथन बहुत किया है सो सस्कृत टीकासे जानना चाहिये । यहाँ तो गाथाका ही अर्थ संक्षेपसे लिखा है । विशेष जानने की इच्छा हो तो रयणसार, वसुनन्दिकृतश्रावकाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धय पाय, अमितगतिश्रावकाचार, प्राकृतदोहाबन्ध श्रावकाचार इत्यादि ग्रन्थोंसे जानना । यहाँ संक्षिप्त कथन है । ऐसे बारह भेदरूप श्रावकधर्मका कथन किया । अब मुनिधर्मका व्याख्यान करते हैं— जो रयणात्तयजुत्तो, खमादिभावेहिं परिणदो खिचौं । सव्वत्थ वि मज्झत्थो, सो साहू भण्णदे धम्मो ॥३६२॥ अन्वयार्थः – [ जो रयणत्तयजुत्तो ] जो पुरुष रत्नत्रय ( निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ) सहित हो [ खमादिभावेहिं णिच्च परिणदो ] क्षमादिभाव ( उत्तम क्षमाको आदि देकर दस प्रकारका धर्म ) से नित्य ( निरन्तर ) परिणत हो [ सव्वत्थ विमज्झत्थो ] सब जगह सुख दुःख, तृण कचन, लाभ अलाभ, शत्रु मित्र, निन्दा प्रशंसा, जीवन मरण आदि में समभावरूप रहे, रागद्व ेष रहित रहे [ सो साहू धम्मो दे ] वह साधु है और उसीको धर्म कहते हैं, धर्मकी मूर्ति है, वह ही धर्म है । क्योंकि जिसमें धर्म है, वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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