SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७३ धर्मानुप्रेक्षा जो णिसिभुतिं वज्जदि, सो उववासं करेदि छम्मासं । संवच्छरस्स मज्झे, आरंभं मुयदि रयणीए ॥३८३॥ अन्वयार्थः- [ जो णिसिभुत्ति वजदि ] जो पुरुष रात्रि भोजनको छोड़ता है [ सो] वह [ संवच्छरस्स मज्झे ] एक वर्ष में [ छम्मासं उवासं करेदि ] छह महिनेका उपवास करता है [ रयणीए आरंभ मुयदि ] रात्रिभोजनका त्याग होनेके कारण भोजन सम्बन्धी आरम्भका भी त्याग करता है और व्यापार आदिकका भी आरम्भ छोड़ता है सो महा दयाका पालन करता है। भावार्थ:-जो रात्रिभोजनका त्याग करता है वह बरस दिनमें छह महिनेका उपवास करता है । अन्य आरम्भका भी रात्रिमें त्याग करता है । अन्य ग्रन्थोंमें इस प्रतिमामें दिनमें स्त्री सेवनका भी मनवचनकाय कृत-कारित अनुमोदनासे त्याग कहा है । ऐसे रात्रिभुक्तत्यागप्रतिमाका वर्णन किया । यह छट्टो प्रतिमा बारह भेदों में सातवाँ भेद हुआ। अब ब्रह्मचर्य प्रतिमाका निरूपण करते हैं सव्वेसिं इत्थीणं, जो अहिलासं ण कुव्वदेणाणी । मण वाया कायेण य, बंभवई सो हवे सदओ ॥३८४॥ अन्वयार्थः-- [ जो ] जो [ गाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) श्रावक [ सव्वेसि इत्थीणं अहिलास ] सब ही चार प्रकारको स्त्री देवांगना, मनुष्यणी, तिर्यंचणी, चित्रामकी इत्यादि स्त्रियोंकी अभिलाषा [ मण वाया कायेण य] मन वचन कायसे [ण कुव्वदे] नहीं करता है [ सो सदओ बंभवई हवे ] वह दयाका पालन करनेवाला ब्रह्मचर्य प्रतिमाका धारक होता है। भावार्थ:-सब स्त्रियोंका मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनासे सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। अब आरम्भविरति प्रतिमाको कहते हैंजो आरंभं ण कुणदि, अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णे । हिंसासंतट्ठमणो, चत्तारंभो हवे सो हु ॥३८५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy