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________________ १७० कार्तिकेयानुप्रेक्षा जाने बिना यत्न करे इस तरह तीन अतिचार तो ये, तथा उपवास में अनादर करना, प्रीति नहीं रखना और क्रिया कर्मको भूल जाना ये पाँच अतिचार नहीं लगाता है । अब प्रोषधका माहात्म्य कहते हैं एक्कं पि गिरारंभं, उववासं जो करेदि उवसंतो । बहुभवसंचियकम्मं, सो गाणी खवदि लीलाए ॥ ३७७ ॥ अन्वयार्थः - [ जो ] जो [ णाणी ] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) [ णिरारंभ ] आरम्भरहित [ उवसंतो ] उपशमभाव ( मन्द कषाय ) सहित होता हुआ [ एक्कं पि उवासं करेदि ] एक भी उपवास करता है [ सो बहुभवसंचियकम्मं लीलाए खवदि ] वह अनेक भवों में संचित किये ( बाँधे ) हुए कर्मोंको लीलामात्रमें क्षय करता है । भावार्थ:- :- कषाय विषय आहारका त्याग कर, इस लोक परलोकके भोगोंकी आशा छोड़ एक भी उपवास करता है वह बहुत कर्मोकी निर्जरा करता है तो जो प्रोषध प्रतिमा धारण करके पक्षमें दो उपवास करता है उसका क्या कहना ? स्वर्ग सुख भोग कर मोक्षको पाता है । अब आरम्भ आदिके त्याग बिना उपवास करता है उसके कर्मनिर्जरा नहीं होती है, ऐसा कहते हैं उववासं कुव्वतो, आरंभं जो करेदि मोहादो | सो यिदेहं सोसदि, ण झाडए कम्मलेसं पि ॥ ३७८ ॥ अन्वयार्थः - [ जो उपवासं कुब्वंतो ] जो उपवास करता हुआ [ मोहादो आरंभ करेदि ] गृहकार्य के मोहसे घरका आरम्भ करता है [ सो णियदेहं सोसदि ] वह अपने देहको क्षीण करता है [ कम्मलेसं पि ण झाडए ] कर्मनिर्जरा तो लेशमात्र भी उसके नहीं होती है । भावार्थ:- जो विषय कषाय छोड़े बिना, केवल आहार मात्र ही छोड़ता है। घरके सब कार्य करता है वह पुरुष देहहीका केवल शोषण करता है उसके कर्मनिर्जरा लेशमात्र भी नहीं होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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