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________________ १४० कार्तिकेयानुप्रेक्षा अपने प्रयोजनके वशसे उनको मुख्य गौण कर कहते हैं जैसे जीव नामक वस्तु है उसमें अनेक धर्म हैं, तो भी चेतनत्व आदि प्राणधारणत्व अजीवोंसे असाधारण देख उन अजीवोंसे भिन्न दिखानेके प्रयोजनके वशसे मुख्यकर वस्तुका जीव नाम रक्खा, ऐसे हो मुख्य गौण करनेका सब धर्मों के प्रयोजनके वशसे जानना चाहिये । यहाँ इस ही आशयसे अध्यात्म प्रकरण में मुख्यको तो निश्चय कहा है और गोणको व्यवहार कहा है। उसमें अभेद धर्म तो प्रधानतासे निश्चय का विषय कहा है और भेद नयको गौणतासे व्यवहार कहा है सो द्रव्य तो अभेद है इसलिये निश्चयका आश्रय द्रव्य है । और पर्याय भेदरूप है इसलिये व्यवहारका आश्रय पर्याय है। यहाँ प्रयोजन यह है कि भेदरूप वस्तुको सबलोक ( संसार ) जानता है इसलिये जो जानता है वह ही प्रसिद्ध है इसी कारण लोक पर्यायबुद्धि है । जोवके नर नारक आदि पर्यायें हैं राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पर्याय हैं तथा ज्ञानके भेदरूप मतिज्ञानादिक पर्यायें हैं इन पर्यायोंहीको लोक जीव जानता है । इसलिये इन पर्यायोंमें अभेदरूप अनादि अनन्त एक भाव जो चेतना धर्म उसको ग्रहण कर, निश्चयनय का विषय कहकर जीव द्रव्य का ज्ञान कराया है, पर्यायाश्रित जो भेदनय उसको गौण किया है तथा अभेददृष्टि में यह दिखाई नहीं देता इसलिये अभेदनयका दृढ़ श्रद्धान करानेके लिये कहा है कि जो पर्याय नय है वह व्यवहार है, अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । सो भेद बुद्धिका एकान्त निराकरण करने के लिये यह कथन जानना, ऐसा नहीं कि यह भेद है सो असत्यार्थ कहा है यह वस्तुका स्वरूप नहीं है, जो ऐसे सर्वथा मानता है वह अनेकान्त में समझा नहीं, सर्वथा एकान्त श्रद्धानसे मिथ्यादृष्टि होता है । जहाँ अध्यात्मशास्त्रों में निश्चय-व्यवहार नय कहे हैं वहाँ भो उन दोनोंके परस्पर विधिनिषेधसे सात भंगोंसे वस्तु सिद्ध कर लेना चाहिये । एकको सर्वथा सत्यार्थ माने और एकको सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्याश्रद्धान होता है इसलिये वहां भो कथंचित् जानना चाहिये । ___ अन्य वस्तुका अन्य वस्तुमें आरोपण करके प्रयोजन सिद्ध किया जाता है वहाँ उपचार नय कहलाता है यह भी व्यवहारमें ही गभित है ऐसे कहा है । जहाँ जो प्रयोजन निमित्त होता है वहाँ उपचार प्रवर्तता है। जैसे घृतका घट-यहाँ मिट्टोके घड़े के आश्रित घृत भरा हुआ होता है सो व्यवहारी लोगोंको आधार आधेय भाव दिखाई देता है उसको प्रधान करके कहते हैं । घृतका घट ( घड़ा ) कहने पर ही लोग समझते हैं और घृतका घड़ा मंगाने पर उसको ले आते हैं इसलिये उपचार में भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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