SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा संख्या ११३ २५४ २५५ २५६ २६१ २६२ ११७ २६५ २६६ २६७ २६८ २६६ २७० २७१ २७२ २७३ २७४ [ ११ ] विषय पृष्ठ संख्या सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञानका स्वरूप ज्ञान सर्वगत भी है ११३ ज्ञान जीवके प्रदेशोंमें रहता हुआ ही सबको जानता है ११४ मनःपर्यय अवधिज्ञान और मति श्रु तज्ञानकी सामर्थ्य ११४ इन्द्रियज्ञान योग्य विषयको जानता है इन्द्रियज्ञानके उपयोगकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे है ११५ इन्द्रियोंका ज्ञान एककाल है या नहीं ? वस्तु के अनेकात्मता है तो भी अपेक्षासे एकात्मता भी है श्र नज्ञान परोक्षरूपसे सबका प्रकाशित करता है श्र तज्ञानके भेद नयका स्वरूप ११७ एक धर्मको नय कैसे ग्रहण करता है ? वस्तुके धर्मको, उसके वाचक शब्दको और उसके ज्ञानको नय कहते हैं ११८ वस्तुके एक धर्मही को ग्रहण करनेवाला एक नय मिथ्यात्व कैसे है ? ११८ परोक्षज्ञानमें अनुमान प्रमाण भी है उसका उदाहरणपूर्वक स्वरूप ११६ नयके भेद ११६ द्रव्यनयका स्वरूप ११६ पर्यायाथिक नयका स्वरूप १२० नैगम नय संग्रह नय १२१ व्यवहार नय १२१ ऋजुसूत्र नय १२२ शब्दनय समभिरूढ नय १२३ एवंभूत नय १२३ नयोंके कथनका संकोच तत्त्वार्थको सुनने, जानने, धारणा, भावना करनेवाले विरले हैं जो तत्त्वको सुनकर निश्चल भाव सो भाये सो तत्त्व को जाने । १२५ तत्त्वकी भावना नहीं करनेवाले स्त्री आदिके वशमें कौन नहीं है ? or Mor wr २७५ १२२ २७६ २७७ २७८ १२४ २७६ १२४ २८० २८१ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy