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________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ___ अन्वयार्थः-[ जीवस्स एक्के काले एगं गाणं उवजुरा होदि ] जीवके एक कालमें एक ही ज्ञान उपयुक्त ( उपयोगकी प्रवृत्ति ) होता है [ पुणो लद्धिसहावेण णाणाणाणाणि वुच्चंति ] और लब्धिस्वभावसे एककालमें अनेक ज्ञान कहे गये हैं। भावार्थः-भाव इन्द्रिय दो प्रकारकी कही गई है, १ लब्धिरूप, २ उपयोगरूप । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे आत्माके जाननेको शक्ति होती है सो लब्धि कहलाती है वह तो पाँच इन्द्रिय और मन द्वारा जाननेकी शक्ति एककाल ही रहती है और उनकी व्यक्तिरूप उपयोगकी प्रवृत्ति ज्ञेयसे उपयुक्त होती है तब एक काल एकहीसे होती है ऐसी ही क्षयोपशमकी योग्यता है । - अब वस्तुके अनेकात्मता है तो भी अपेक्षासे एकात्मता भी है ऐसा दिखाते हैं जं वत्थु अणेयंतं, एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सुयणाणेण णयेहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥२६१॥ अन्वयार्थ:-[जं वत्थु अणेयंत ] जो वस्तु अनेकान्त है [ तं सविपेक्खं एयंतं पि होदि ] वह अपेक्षासहित एकान्त भी है [ सुयणाणेण णयेहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव ] श्रुतज्ञान प्रमाणसे सिद्ध किया जाय तो अनेकान्त ही है और श्रुतज्ञान प्रमाणके अंश नयोंसे सिद्ध किया जाय तब एकान्त भी है, वह अपेक्षारहित नहीं है क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या हैं, निरपेक्षासे वस्तुका रूप नहीं देखा जाता है। भावार्थः-प्रमाण तो वस्तुके सब धर्मोंको एक काल सिद्ध करता है और नय एक एक धर्म ही को ग्रहण करते हैं इसलिये एकनयके दूसरे नयकी सापेक्षा होय तो वस्तु सिद्ध होवे और अपेक्षा रहित नय वस्तुको सिद्ध नहीं करता है इसलिये अपेक्षासे वस्तु अनेकान्त भी है ऐसा जानना ही सम्यग्ज्ञान है। अब श्रुतज्ञान परोक्षरूपसे सबको प्रकाशित करता है यह कहते हैं सव्वं पि अणेयंतं, परोक्खरूवेण जं पयासेदि । तं सुयणाणं भएणदि, संसयपहुदीहि परिचत्तं ॥२६२॥ अन्वयार्थः-[जं सव्वं पि अणेयंत परोक्खरूवेण पयासेदि ] जो ज्ञान सब वस्तुओंको अनेकान्त, परोक्षरूपसे प्रकाशित करता है-जानता है-कहता है और जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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