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________________ ३८ कार्तिकेयानुप्रेक्षा अब कालद्रव्यका स्वरूप कहते हैं सव्वाणं दव्वाणं, परिणामं जो करेदि सो कालो । एक्केकासपएसे, सो वट्टदि एक्किको चेव ॥२१६॥ अन्वयार्थः- [जो ] जो [ सव्वाणं दव्याणं परिणामं ] सब द्रव्योंके परिणाम ( परिणमन-बदलाव ) [ करेदि सो कालो ] करता है सो कालद्रव्य है [ सो] वह [ एक्कासपएसे ] एक एक आकाशके प्रदेश पर [ एकिको चेव वदि ] एक एक कालाणुद्रव्य वर्तता है। भावार्थ:-सब द्रव्योंको पर्यायें प्रतिसमय उत्पन्न व नष्ट होती रहती हैं इसप्रकारके परिणमन में निमित्त कालद्रव्य है । लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक २ कालाणु रत्नोंकी राशिवत् रहता है, यह निश्चय काल है । अब कहते हैं कि परिणमनेकी शक्ति स्वभावभूत सब द्रव्यों में है, अन्यद्रव्य निमित्तमात्र हैं णियणियपरिणामाणं, णियणियदव्वं पि कारणं होदि । अण्णं बाहिरदव्वं, णिमित्तमित्तं वियाणेह ॥२१७।। अन्वयार्थः- [णियणियपरिणामाणं णियणियदव्वं पि कारणं होदि ] सब द्रव्य अपने अपने परिणमनके उपादान कारण है [ अण्णं बाहिरदव्यं ] अन्य बाह्य द्रव्य हैं वे अन्यके [ णिमित्तमि वियाणेह ] निमित्तमात्र जानों । श्रेणी आकाशकी संख्या आती है ( जो मध्यम अनन्तकी उत्कृष्टताके समीप है ) जो श्रेणी आकाशके घनप्रमाण सम्पूर्ण आकाश प्रदेश है। तीनों कालके समयोंसे भी आकाशप्रदेश अनन्तानन्त गुणे हैं इसप्रकार श्री केवलज्ञानी भगवान श्री महावीरने प्रतिपादन किया है । “व्यय-सद्भावे सत्यपि नवीन वृद्ध रभाववत्वं चेत् । यस्य क्षयो न नियतः सोऽनंतो जिनमते भणितः" यह है एक समय में-प्रत्येक समय में अखिल विश्वका अत्यन्त स्पष्ट पूर्ण ज्ञाता सर्वज्ञकी वास्तविकता और महिमा इसलिये ही जैनधर्म में धर्मका मूल सर्वज्ञ और ( जाति अपेक्षा छह ही है ) छहों द्रव्योंकी सर्वदा सर्व प्रकार स्वतन्त्रता स्वयमेव प्रकाशमान है । [ तत्वार्थ श्लोकवातिक पु० नं० ६ पृष्ठ १४३ से उद्धृत ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001842
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorKartikeya Swami
AuthorMahendrakumar Patni
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size16 MB
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