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________________ पद्य ४७-५० ] जीवाधिकार ३१ नहीं होती ? इसके उत्तर में ही इस पद्यका अवतार हुआ जान पड़ता है। इसमें बतलाया है । कि जो आत्मरूपको छोड़कर परमेष्ठिरूपकी उपासना करता है वह उत्कृष्ट पुण्यका बन्ध करता है और इसीलिए कर्मका सर्वथा क्षय नहीं कर पाता । कर्मोंका सर्वथा क्षय हुए aar मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती । मुक्तिकी प्राप्तिके लिए उसे अर्हन्तादि के प्रति भक्ति-रागको भी छोड़ना पड़ेगा । यद्यपि यह राग शुभ होता है, इसमें अशुभ कर्म के बन्धको अवसर नहीं, प्रत्युत इसके पूर्व बँधा हुआ अशुभ कर्म छूट जाता है; फिर भी यह राग नये पुण्य बन्धका कारण तो है ही, जिसके फलस्वरूप भक्तको देवलोककी— स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है; जैसा कि पंचास्तिकायकी निम्न गाथासे प्रकट है : अरहंत-सिद्ध-चेदिय-पवयण-भत्तो परेण णियमेण । जो कुणदि तवोकम्मं सो सुरलोगे समादियदि ॥ १७१ ॥ इसमें बतलाया गया है कि जो अर्हन्त, सिद्ध, चैत्य तथा प्रवचनका भक्त हुआ उत्कृष्ट (भक्ति) रूपसे तपश्चरण-कार्य करता है वह नियमसे देवलोकको प्राप्त करता है । कर्मास्रवको रोकनेका अनन्य उपाय नागच्छच्छक्यते कर्म रोद्धुं केनापि निश्चितम् । निराकृत्य परद्रव्याण्यात्मतत्त्वरतिं विना ॥ ४६ ॥ 'परद्रव्योंको छोड़कर आत्मतत्त्वमें रति-लीनता किये बिना आते हुए कर्मको - आत्मामें प्रविष्ट एवं संश्लिष्ट (आस्रव - बन्धको प्राप्त) होते हुए कर्म - समूहको - किसी भी उपायसे रोकना सम्भव नहीं; यह निश्चित है ।' व्याख्या - इस पद्य में परद्रव्योंकी उपासना छोड़नेकी बात को और दृढ किया गया है । लिखा है कि परद्रव्योंको - परद्रव्यों में रतिको - छोड़कर आत्म-तत्त्वमें रति किये बिना दूसरे किसी भी उपायसे आत्मामें कर्मोंके आगमनको—आस्रवको रोका नहीं जा सकता, यह असन्दिग्ध है । अतः मोक्षप्राप्तिके अभिलापियोंको कर्मोंके आस्रवन्बन्ध से छूटने के लिए परद्रव्योंकी उपासनाको छोड़कर आत्मध्यानमें रतिको अपनाना चाहिए । Jain Education International परद्रव्योपासक मुमुक्षुओं की स्थिति ये मूढा लिप्स मोक्षं परद्रव्यमुपासते । ते यान्ति सागरं मन्ये हिमवन्तं यियासवः ||२०|| 'जो मोक्षकी लालसा रखते हुए परद्रव्यकी उपासना करते हैं-पर-द्रव्यों के भक्त एवं सेवक बने हुए उन्हीं के पीछे डोलते हैं - वे मूढजन हिमवान पर्वतपर चढ़नेके इच्छुक होते हुए समुद्रकी ओर चले जाते हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।' व्याख्या - यहाँ उन लोगोंको मूढ - महामूर्ख मिध्यादृष्टि - बतलाया गया है जो लालसा तो रखते हैं मोक्षकी और उपासना करते हैं पर पदार्थोंकी । पर-पदार्थोके बन्धनसे सर्वथा छूटने का नाम ही तो 'मोक्ष' है, जब पर-पदार्थोंमें अनुराग रखा जाता है तब उनके बन्धनसे छूटना कैसा ? ऐसे लोगों की स्थिति उन यात्रियों-जैसी है जो जाना तो चाहते हैं। हिमालय पर्वतपर और चले जा रहे हैं समुद्रकी तरफ ! १. आ, ब्या निराकृतापरद्रव्यामात्मतत्त्वरति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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