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________________ पर्याप्स्यधिकारः] [ २९५ तमस्तमः पृथिव्या नारका उत्तिता: संतः सप्तमनरकादागताः सतो मानुषत्वं मनुष्यभवं न लभन्ते न प्राप्नुवन्ति सुष्ठु संक्लेशकारणं यतस्ततस्तिर्यग्योनिमुपनयन्ति सिंहव्याघ्रादिकं पुनः पापकारणं प्राप्नुवन्ति । ॥११५७॥ अथ केषु तिर्यसूत्पद्यन्ते उत्पन्नाश्च क्व गच्छन्तीत्याशंकायामाह वालेसु य दाढीसु य पक्खोसु य जलचरेसु उववण्णा । संखेज्जआउठिदिया पुणेवि गिरयावहा होति ॥११५८॥ वालेसु-व्यालेषु श्वापदभुजगेषु चशब्दादन्येष्वपि तत्समानेषु, वाढीसु य-दंष्ट्रिषु च सिंहव्याघ्रवराहादिषु, पक्खीस य-पक्षिषु च गृध्रभेरुण्डादिषु च, अलघरेसु-जलचरेषु तिमितिमिगलादिमत्स्यमकरादिषु उववण्णा-उत्पन्नाः, संखेज्जआउठिदिया–संख्यातायुःस्थितिर्येषां ते संख्यातायुःस्थितिकाः कर्मभूमिकर्मभूमिप्रतिभागजाः सन्तः, पुणेवि-पुनरपि पापवशात् गिरयावहा-नरकावहानारका,होंति-भवन्ति, नारककर्मसमार्जका भवन्ति । सप्तमपृथिव्या आगत्यव्यालदंष्ट्रिपक्षिजलचरेषत्पद्य पुनरपिनरकं गच्छन्तीति ॥११५८॥ .. अथ षष्ठ्या आगताः क्वोत्पद्यन्ते किं लभन्ते किं च न लभन्ते इत्याशंकायामाह छट्ठीदो पुढवीदो उव्वविदा' अणंतरभवम्हि । भज्जा माणुसलंभे संजमलंभेण दु विहीणा ॥११५६॥ आचारवृत्ति-नारकी जीव तमस्तम नामक सातवें नरक से निकलकर मनुष्य पर्याय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उनके परिणाम अत्यधिक संक्लेश के कारणभूत होते हैं, इसलिए वे पुनरपि पाप के लिए कारणभत सिंह, व्याघ्र आदि तिर्यंच योनि को ही प्राप्त करते हैं। ने किन तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ उत्पन्न हुए पुनः कहाँ जाते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-वे नारकी सर्प, दाढ़वाले पशु, पक्षी और जलचरों में उत्पन्न होकर संख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं, पुनः मरकर नारक अवस्था को प्राप्त होते हैं ॥११५८॥ आचारवत्ति-व्याल अर्थात् श्वापद सर्प आदि में, 'च' शब्द से, उसके समान प्राणियों में दाढ़वाले-सिंह, व्याघ्र, शूकर आदि में, गीध, भेरुण्ड आदि पक्षियों में और जलचर-मछली, तिमिंगल आदि मत्स्य, मगर आदि पर्यायों में उत्पन्न होकर संख्यात वर्ष की आयुवाले अर्थात कर्मभूमिज और कर्मभूमिप्रतिभागज तिर्यंच ही होते हैं । पुनरपि यहाँ पर पाप करके उस पाप के वश मरकर नारकी ही होते हैं। तात्पर्य यह है कि सातवीं पृथिवी से निकलकर दाढ़वाले व्याल आदि हिंस्र जन्तु, पक्षी और जलचरों में जन्म लेकर पुनरपि नरक में जाते हैं। ___ छठे नरक से निकलकर कहाँ उत्पन्न होते हैं और क्या प्राप्त करते हैं, क्या नहीं प्राप्त करते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं-- गाथार्थ-उनका छठी पृथिवी से निकलकर अगले भव में मनुष्यपर्याय-लाभ वैकल्पिक है किन्तु वे संयमप्राप्ति से हीन ही होते हैं ।।११५६॥ १.. उम्बटित्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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