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________________ समयसाराधिकारः । [ १५३ वस्थितं विशेष्यमनेकप्रकाराधारतया निर्दिष्टं केवलं तु तस्य पर्यायो नारकमनुष्यादिरूपो राज्यपर्यायः स दृष्टो विशेषो, विशेषणं न सर्वथा भेदं करोति सर्वास्ववस्थासु यत इति ॥९८१॥ द्रव्याथिकनयापेक्षयकत्वं प्रतिपाद्य पर्यायाथिकनयापेक्षया भेदं प्रतिपादयन्नाह जीवो अणाइणिहणो जीवोत्ति य णियमदो ण वत्तव्यो। जं पुरिसाउगजीवो देवाउगजीविदविसिट्ठो ॥९८२॥ जीवोऽनादिनिधन आदिवजितो निधनवजितश्च जीव इति च निश्चयेन सर्वथा गुणादिरूपेणापि नियमतो न वक्तव्यो न वाच्यो यतः पुरुषायुष्को जीवो देवायुष्काद्विशिष्टो, न हि य एव देवः स एव मनुष्यः, यश्च मनुष्यो नासो तिर्यग्, यश्च तिर्यग् नासो नारकः पर्यायभेदेन भेदादिति ॥२॥ जीवपर्यायान् प्रतिपादयन्ताह-- संखेज्जमसंखेज्जमणंतकप्पं च केवलं गाणं । तह रायदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया ॥३॥ संख्यातविषयत्वात्संख्यातं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च तथाऽसंख्यातविषयत्वादसंख्यातमवधिज्ञानं मन: दोनों अवस्थाओं में विद्यमान है, ऐसे ही जीवद्रव्य सर्वकाल में अवस्थित रहने से अनादि-निधन है, विशेष्य है । अर्थात अनेक प्रकार के आधार रूप से कहा गया केवल एक है। उसकी पर्यायें नारक, मनुष्य आदि रूप हैं जो कि राज्य पर्याय के सदृश हैं। ये पर्याय विशेषण रूप होते हुए भी उस द्रव्य की सभी अवस्थाओं में सर्वथा भेद नहीं करती हैं। ___ भावार्थ --जीव द्रव्य एक है । उसकी नाना पर्यायें भेदरूप होते हुए भी उसे अनेक नहीं कर पाती हैं । यहाँ पर द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता है। ___ द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से एकत्व का प्रतिपादन करके पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से भेद का प्रतिपादत करते हैं---- __ गाथार्थ-जीव अनादिनिधन है, वह जीव ही है ऐसा एकान्त से नहीं कहना चाहिए क्योंकि मनुष्यायु से युक्त जीव देवायु से युक्त जीव से भिन्न है ॥६८२॥ प्राचारवृत्ति-जीव आदि और अन्त से रहित है; वह जीव है ऐसा निश्चय से अर्थात् सर्वथा एकान्त से नहीं कह सकते हैं, क्योंकि गुण और पर्यायों की अपेक्षा से उसका आदि-अन्त और उसमें भेद देखा जाता है, जैसे मनुष्यायु से युक्त जीव की अपेक्षा देवायु से युक्त जीव में भेद है। जो देव है वही मनुष्य नहीं है और जो मनुष्य है वह तिर्यंच नहीं है और जो तिर्यंत्र है वही नारको नहीं है। अर्थात् पर्यायों के भेद से जीव में भी भेद पाया जाता हैं चूंकि प्रत्येक पर्याय कथंचित् पृथक्-पृथक् है । जीव की पर्यायों का वर्णन करते हैं गाथार्थ -संख्यात को जाननेवाला असंख्यात को जाननेवाला तथा अनन्त को जाननेवाला केवलज्ञान है उसी प्रकार से राग, द्वेष, मोह एवं अन्य भी जीव की पर्यायें हैं ।।९८३॥ आचारवत्ति-संख्यात को विषय करनेवाले होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान संख्येय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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