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________________ मलगुणाधिकारः] वेन्नैष दोषः, दैन्यवृत्तियाचनपरिग्रहपरिभवादिदोषपरित्यागादिति ।। अचेलकत्वस्वरूपप्रतिपादनायोत्तरसूत्रमाह वत्थाजिणवक्केण य अहवा पत्ताइणा प्रसंवरणं। णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं ॥३०॥ वत्थाजिणवक्केण-वस्त्रं पटचीवरकम्बलादिकं, अजिनं चर्म मृगव्याघ्रादिसमुद्भवं, वल्कं वृक्षादित्वक, वस्त्रं चाजिनं च वल्कं च वस्त्राजिनवल्कानि तर्वस्त्राजिनवल्कः पटचीवरचर्मवल्कलरपि । अहवाअथवा । पत्ताइणा-पत्रमादिर्येषां तानि पत्रादीनि तैः पत्रादिभिः पत्रबालतृणादिभिरसंवरणमनावरणमनाच्छादनं । णिभूसणं-भूषणानि कटककेयूरहारमुकुटाद्याभरणमंडनविलेपनधूपनादीनि तेभ्यो निर्गतं निभूषणं उत्तर-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि उस्तरा आदि से केशों को दूर करने में दैन्यवृत्ति होना, याचना करना, परिग्रह रखना, या तिरस्कारित होना आदि दोषों का होना सम्भव है किन्तु हाथ से केशों को दूर करने में ये उपर्युक्त दोष नहीं आ सकते हैं। भावार्थ-अपने हाथों से केशों को उखाड़ने से उसमें जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, शरीर के संस्कार रूप केशों को न रखने से शरीर से अनुराग भाव समाप्त हो जाता है, अपनी शक्ति वृद्धिंगत होती है, कायक्लेश होने से उत्तम से उत्तम तपश्चरणों का अभ्यास होता है और मुनि के जो चार लिंग माने गये हैं आचेलक्य केशलोच, पिच्छिका ग्रहण और शरीर-संस्कार-हीनता, इनमें से केशलोच से लिंग ज्ञापित होता है ये तो केशलोच के गुण हैं। यदि उस्तरा आदि से केशों को निकलावें तो नाई के सामने माथा नीचा करने से उसकी गरज करने से दीनवृत्ति दिखती है, स्वाभिमान और स्वावलम्बन समाप्त होता है, नाई को देने हेतु पैसे की याचना करनी पड़ेगी, या कैंची आदि परिग्रह अपने पास रखना पड़ेगा अथवा लोगों से नाई के लिए या कैची के लिए कहने से किसी समय उनके द्वारा अपमान, तिरस्कार आदि भी किया जा सकता है। इन सब दोषों से बचने के लिए और शरीर से निर्ममता को सूचित करने के लिए जैन साधु साध्वी अपने हाथ से केशों को उखाड़कर लोच मूलगुण पालते हैं। अचेलकत्व का स्वरूप बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं गाथार्थ-वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदिकों से शरीर को नहीं ढकना, भूषण अलंकार से और परिग्रह से रहित निग्रंथ वेष जगत् में पज्य अचेलकत्व नाम का मूलगुण है ॥३०॥ प्राचारवृत्ति-वस्त्र-धोती दुपट्टा कंबल आदि; अजिन-मृग, व्याघ्र आदि से उत्पन्न चर्म; वल्कल-वृक्षादि की छाल, इनसे शरीर को नहीं ढकना अथवा पत्ते और छोटे-छोटे तृण आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण-कड़े, बाजूबंद, हार, मुकुट आदि आभरण और मंडन विलेपन धूपन आदि वस्तुएँ ये सब भूषण शब्द से विवक्षित हैं इनसे निर्गत-रहित जो वेष है वह निर्भूषण वेष है अर्थात् सम्पूर्ण प्रकार के राग और अंग के विकारों का अभाव होना, ग्रन्थ १क वक्कं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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