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________________ मूलगुणाधिकारः] भिन्नेभ्यो मनोहरामनोहररूपेभ्यः । गिरोहियव्वा-निरोधयितव्यानि-सम्यक् ध्याने प्रवेशयितव्यानि। सया--सदा सर्वकालम् । मुणिणा--मुनिना संयमप्रियेण । स्वकीयेभ्यः स्वकीयेभ्यो विषयेभ्यो रूपशब्दगन्धरसस्पर्शेभ्यश्चक्षुरादीनां निरोधनानि मुनेर्यानि तानि पंच इन्द्रियनिरोधनानि पंच मूलगुणा भवन्तीत्यर्थः । अथवा ये पंच निरोधा इंद्रियाणां क्रियते मुनिना स्वविषयेभ्यस्ते पंचेंद्रिय-निरोधा: पंच मूलगुणा भवन्तीत्यर्थः। प्रथमस्य चक्षुनिरोधव्रतस्य स्वरूपनिरूपणार्थमाह सच्चित्ताचित्ताणं किरियासंठाणवण्णभेएसु। रागादिसंगहरणं चक्खुणिरोहो हवे मुणिणो ॥१७॥ सच्चित्ताचित्ताणं-सहचित्तेन सामान्यज्ञानदर्शनोपयोगनिमित्तचैतन्येन वर्तन्त इति सचित्तानि सजीवरूपाणि देवमनुष्यादियोषिद् पाणि, न चित्तानि अचित्तानि सचित्तद्रव्यप्रतिविम्बानि, अजीवद्रव्याणि च । सचित्तानि, चाचित्तानि च सचित्ताचित्तानि, तेषां सचित्ताचितानाम् । किरियासंठाणवणभेएसु-क्रिया गीतविलासनत्यचंक्रमणात्मिका, संस्थानं समचतुरस्रन्यग्रोधाद्यात्मकं वैशाखबन्धपुटाद्यात्मकं च, वर्णाः गौरश्यामादयः । क्रिया च संस्थानं च वर्णाश्च क्रियासंस्थानवर्णाः, तेषां भेदा विकल्पाः क्रियासंस्थान अपने विषयों से इन पाँचों इन्द्रियों का निरोध करना चाहिए अर्थात् मुनियों को हमेशा इन्हें समीचीन ध्यान में प्रवेश कराना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्शस्वरूप अपने-अपने विषयों से मुनि के जो चक्षु आदि इन्द्रियों के निरोध होते हैं वे पाँच इन्द्रिय निरोध मूलगुण कहलाते हैं । अथवा मुनि के द्वारा पाँच इन्द्रियों का जो अपने विषयों से रोकना है वे ही पाँच इन्द्रिय-निरोध नाम के मूलगुण होते हैं। विशेषार्थ-यहाँ पर पाँच इन्द्रियों में चक्षुइन्द्रिय को पहले लेकर पुनः कर्णेन्द्रिय को लिया है, अनन्तर घ्राण, रसना और स्पर्शन को लिया है। सिद्धान्त ग्रन्थों में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ऐसा क्रम लिया जाता है। इन दोनों प्रकारों में परस्पर में कोई बाधा नहीं है। वहाँ सिद्धान्त में उत्पत्ति की अपेक्षा इन्द्रियों का क्रम है क्योंकि जो एकेन्द्रिय हैं उनके एक स्पर्शन ही है न कि चक्षु; जो दो-इन्द्रिय जीव हैं उनके स्पर्शन और रसना, जो तीन-इन्द्रिय जीव हैं उनके स्पर्शन, रसना और घ्राण; चार-इन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु तथा पाँच-इन्द्रिय जीवों के कर्ण और मिलाकर पाँच इन्द्रियाँ हो जाती हैं। परन्तु यहाँ पर क्रम की कोई विवक्षा नहीं, मात्र पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकने में पांच मूलगुण हो जाते हैं अतः यहाँ अक्रम से लेने में भी कोई बाधा नहीं है। अब प्रथम चक्षुनिरोध व्रत का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं गाथार्थ-सचेतन और अचेतन पदार्थों के क्रिया, आकार और वर्ण के भेदों में मुनि के जो राग-द्वेष आदि संग का त्याग है वह चक्षुनिरोध व्रत होता है ॥१७॥ प्राचारवृत्ति सामान्य ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग निमित्तक चैतन्य को चित्त कहते हैं। उसके साथ जो रहते हैं वे सचित्त हैं अर्थात् देव, मनुष्य आदि के, स्त्रियों के सजीव रूप सचित्त हैं, सचित्त द्रव्य के प्रतिबिम्ब और अजीवद्रव्य अचित्त हैं। इन सचेतन और अचेतन पदार्थों की गीत, विलास, नृत्य, गमन आदि क्रियाओं में, इनके समचरतुरस्र, न्यग्रोध आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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