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________________ पंचाचाराधिकारः] वा न स्पष्टा तथापि सर्वज्ञाज्ञानिर्देशन गृह्णाति नान्यथावादिनो जिना यत इति ॥३६६॥ अपायविचयं विवृण्वन्नाह कल्लाणपावगानो पाए विचिणादि जिणमदमुविच्च । विचिणादि वा अपाये जीवाण सुहे य असुहे य ॥४००॥ कल्याणप्रापकान् पंचकल्याणानि यः प्राप्यन्ते तान् प्राप्यान् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि । विचिनोति ध्यायति । जिनमतमुपेत्य जैनागममाश्रित्य । विचिनोति वा ध्यायति वारा अपायान कर्मापगमान स्थितिखण्डाननुभागखण्डानुत्कर्षापकर्षभेदान् । जीवानां सुखानि जीवप्रदेशसंतर्पणानि । असुखानि दुःखानि चात्मनस्तु विचिनोति भावयतीति । एतैः कर्तव्यर्जीवा दूरतो भवन्ति शासनात्, एतैस्तु शासनमुपढौकते, एतैः परिणामः संसारे प्रमन्ति जीवाः, एतैश्च संसाराद्विमुञ्चन्तीति चिन्तनमपायचिन्तनं नाम द्वितीयं धर्मध्यानमिति ॥४००॥ विपाकविचयस्वरूपमाह एमाणेयभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदमोदीरणसंकमबंध मोक्खं च विचिणादि ॥४०१॥ निर्देश से वह उनको ग्रहण करता है; क्योंकि 'नान्यथावादिनो जिनाः' जिनेन्द्रदेव अन्यथावादी नहीं हैं। अपाय विचय का वर्णन करते हैं । गाथार्थ-जिनमत का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त करानेवाले उपायों का चिन्तन करना अथवा जीवों के शुभ और अशुभ का चिन्तन करना अपायविचय है ॥४००॥ प्राचारवृत्ति-जिनके द्वारा पंचकल्याणक प्राप्ताकिये जाते हैं वे सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र प्राप्य हैं अर्थात् उपायभूत हैं। जैनागम का आश्रय लेकर इनका ध्यान करना उपायविचय धर्म ध्यान है; क्योंकि इसमें पंचकल्याणक आदि कल्याणकों के प्राप्त करानेवाले उपायों का चिन्तन किया जाता है। इसी प्रकार अपाय अर्थात् स्थिति खंडन, अनुभागखंडन, उत्कर्षण और अपकर्षण रूप से कर्मों का अपाय-अपगम-अभाव का चिन्तवन करना यह अपायविचय धर्मध्यान है। जीव के प्रदेशों को संतर्पित करनेवाला सुख है और आत्मा के प्रदेशों में पीड़ा उत्पन्न करनेवाला दुःख है । इस तरह से जीवों के सुख और दुःख का चिन्तवन करना। अर्थात् जीव इन कार्यों के द्वारा जिनशासन से दूर हो जाते हैं और इन शुभ कार्यों के द्वारा जिनशासन के निकट आते हैं, उसे प्राप्त कर लेते हैं । या इन परिणामों से संसार में भ्रमण करते हैं और इन परिणामों से संसार से छूट जाते हैं। इस प्रकार से चिन्तवन करना यह अपायविचय नाम का दूसरा धर्मध्यान है। भावार्थ-कल्याण के लिए उपायभूत रत्नत्रय का चिन्तवन करना उपायविचय तथा कर्मों के अपाय-अभाव का चिन्तवन करना अपायविचय है। अब विपाकविचय का स्वरूप कहते हैंगाथार्य-जीवों के एक और अनेक भव में होनेवाले पुण्य-पाप कर्म के फल को तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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