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________________ मूलाचारे प्रद्धाणतेणसावदरायणदीरोधणासिवे प्रोमे। वेज्जावच्चं वुत्तं संगहसारक्खणोवेदं ॥३६२॥ अध्वनि श्रान्तस्य। स्तेनैश्चौररुपद्रु तस्य । श्वापदैः सिंहव्याघ्रादिभिः परिभूतस्य । राजभिः खंचितस्य । नदीरोधेन पीडितस्य । अशिवेन मारिरोगादिव्यथितस्य । ओमे-दुभिक्षपीडितस्य । वयावृत्यमुक्तं संग्रहसारक्षणोपेतं । तेषामागतानां संग्रहः कर्तव्यः । संगृहीतस्य रक्षणं कर्तव्यं । अथचैवं सम्बन्धः कर्तव्यः । एतेषु प्रदेशेषु संग्रहोपेतं सारक्षणोपेतं च वैयावृत्यं कर्तव्यमिति । अथवा रोधशब्दाः प्रत्येक मभिसम्बध्यते। पथिरोधश्चौररोधः श्वापदरोधः राजरोधो नदीरोध एतेषु रोधेषु तथा अशिवे दुर्भिक्षे च वैयावृत्यं कर्तव्यमिति ॥३६४॥ स्वाध्यायस्वरूपमाह परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंजुत्तोपंचविहो होइ सज्झाओ ॥३६३॥ परिवर्तनं पठितस्य ग्रन्थस्यानुवेदनं । वाचना शास्त्रस्य व्याख्यानं । पृच्छना शास्त्रश्रवणं । अनुप्रेक्षा द्वादशानुप्रेक्षाऽनित्यत्वादि । धर्मकथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितानि । स्तुतिर्मुनिदेववन्दना मंगल इत्येवं संयुक्तः गाथार्थ-मार्ग, चोर, हिंस्रजन्तु, राजा, नदी का रोध और मारी के प्रसंग में, दुर्भिक्ष में, सारक्षण से सहित वैयावृत्ति करना चाहिए ॥३६२॥ प्राचारवृत्ति-मार्ग में चलने से जो थक गये हैं, जिन पर चोरों ने उपद्रव किया है, सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं से जिनको कष्ट हुआ है, राजा ने जिनको पीड़ा दी है, नदी की रुकावट से जिनको बाधा हुई है, अशिव अर्थात् मारी-रोग आदि से जो पीड़ित हैं, दुर्भिक्ष से पीडित हैं ऐसे साधु यदि अपने संघ में आये हैं तो उनका संग्रह करना चाहिए। जिनका संग्रह किया है उनकी रक्षा करनी चाहिए । इसका ऐसा सम्बन्ध करना कि इन स्थानों में संग्रह से सहित और उनकी रक्षा से सहित वैयावृत्य करना चाहिए । अथवा रोध शब्द को प्रत्ये साथ लगाना चाहिए। जैसे मार्ग में जिन्हें रोका गया हो, चोरों ने रोक लिया है, हिंस्र जन्तुओं ने रोक लिया हो, राजा ने रुकावट डाली हो, नदी से रुकावट हुई हो ऐसे रोध के प्रसंग में, तथा दुःख में दुर्भिक्ष में वैयावृत्ति करना चाहिए। स्वाध्याय का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ परिवर्तन, वाचना, पच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा स्तुति-मंगल संयुक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना चाहिए ॥३६३॥ प्राचारवृत्ति-पढ़े हुए ग्रन्थ को पुनः पुनः पढ़ना या रटना परिवर्तन है । शास्त्र का व्याख्यान करना वाचना है। शास्त्र का श्रवण करना पृच्छना है। अनित्यत्व आदि बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का चितवन करना अनुप्रेक्षा है। वेसठ शलाकापुरुषों के चरित्र पढ़ना धर्मकथा है । स्तुति-मुनि वन्दना, देव-वन्दना और मंगल इनसे संयुक्त स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है कि (१) परिवर्तन, (२) वाचना, (३) पृच्छना, (४) अनुप्रेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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