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________________ २६८] [मूलाचारे आदाने ग्रहणे । निक्षेपे त्यागे । प्रतिलेख्य सुष्ठ निरीक्षयित्वा चक्षुषा पश्चात्पिच्छिकया सम्मार्जयेत् प्रतिलेखयेत । द्रव्यं द्रव्यस्थानं च । कवलिका कण्डिकादि द्रव्यं, यंत्र तदव्यवस्थितं तत्स्थानं । संयर भिक्षुर्यतिः । श्रामण्ययोग्यवस्तुनो ग्रहणकाले निक्षेपकाले वा चक्षुषा द्रव्यं द्रव्यस्थानं च प्रतिलेख्य पिच्छिकया सम्मायेदिति ॥३१॥ येन प्रकारेणादाननिक्षेपसमितिः शुद्धा भवति तमाह--- सहसाणाभोइयदुप्पमज्जिद अप्पच्चुवेक्षणा दोसा। परिहरमाणस्स हवे समिदी आदाणणिक्खेवा ॥३२०॥ सहसा शीघ्र व्यापारान्तरं प्रत्युदगतमनसा निक्षेपमादानं वा। अनाभोगितमनालोकनं स्वस्थचित्तवृत्त्याग्रहणमादानं वा अनालोक्य द्रव्यं द्रव्यस्थानं यत्क्रियते तदानाभोगितं । दुष्टप्रमाजितं दुष्प्रमाजितं पिच्छिकयावष्टभ्य प्रतिलेखनं । अप्रत्युपेक्षणं किंचित् संस्थाप्य पुनः कालान्तरेणालोकनं। एतान् दोषान् परिहरतो भवेदादाननिक्षेपसमितिरिति । किमुक्तं भवति, स्वस्थवृत्त्या द्रव्यं द्रव्यस्थानं च चक्षुषावलोक्य मृदुप्रति आचारवृत्ति-कवलिका-शास्त्र रखने की चौकी आदि तथा कमण्डलु आदि वस्तुएँ द्रव्य हैं। जहाँ पर ये रखी हैं वह द्रव्य स्थान है। मूनि किसी भी वस्तु को उठाने में या रखने में पहले उसको अपनी आँखों से अच्छी तरह देख ले, फिर पिच्छिका से परिमाजित करे। तभी उस वस्तु को ग्रहण करे या वहाँ पर रखे । इस तरह संयम की उपलब्धि से वह भिक्ष यति कहलाता है। तात्पर्य यह है कि श्रमणपने के योग्य ऐसी वस्तु को ग्रहण करते समय अथवा उन्हें रखते समय अपनी आँखों से वस्तुओं और स्थान का अवलोकन करके पुनः पिच्छिका से झाड़पोंछ कर उन वस्तुओं को ग्रहण करे या रखे। जिन दोषों के छोड़ने से आदान निक्षेपण समिति शुद्ध होती है उन्हें कहते हैं गाथार्थ–सहसा, अनाभोगित, दुष्प्रमार्जित और अप्रत्युपेक्षित दोषों को छोड़ते हुए मुनि के आदान निक्षेपण समिति होती है ।।३२०।। आचारवृत्ति-अन्य व्यापार के प्रति मन लगा हुआ होने से सहसा किसी वस्तु को उठा लेना या रख देना सहसा दोष है। स्वस्थ चित्त की प्रवृत्ति से अवलोकन न करके कोई हण करना या रखना अथवा कमण्डल आदि वस्त और उसके स्थान को बिना देखे ही वस्तु का रखना-उठाना आदि यह अनाभोगित दोष है। पिच्छिका से ठीक-ठीक परिमार्जन न करके, जैसे-तैसे कर देना यह दुष्प्रमार्जित दोष है। कुछेक पुस्तक आदि वस्तु कहीं पर रखकर पुनः कई दिन बाद उनका अवलोकन-प्रतिलेखन करना यह अप्रत्युपेक्षण दोष है। इन दोषों का परिहार करते हुए मुनि के आदाननिक्षेपण समिति होती है। तात्पर्य क्या हुआ ? मन की स्वस्थवृत्ति से उपयोग को स्थिर करके पुस्तक आदि वस्तुएँ और उनके रखने-उठाने के स्थान को अपनी आँखों से देखकर पुनः कोमल मयूर पंख की पिच्छिका से उसे झाड़-पोंछ कर उस वस्तु को ग्रहण करना या रखना चाहिए । तथा रखी हुई पुस्तक आदि का थोड़े दिनों में ही पुनः अवलोकन सम्मान करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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